ये कैसा और किसको है रैबार . . .
20 वें राज्य स्थापना दिवस के उपलक्ष्य पर सरकार रैबार दे रही ‘आवा अपुण घौर’ यानि आओ अपने घर। सवाल यही से उठने शुरू होते है कि ‘आवा अपुण घौर’ आखिर क्यों? सिर्फ रिवर्स पलायन के लिए। क्या वो लोग जो आज रिवर्स की बात करते है, वो वापस अपने गांव जाना चाहते है या मात्र वो राजनीति करना चाहते है और कुछ नहीं। जबकि आज प्रदेश के मुखिया, मंत्री से लेकर संतरी तक दून में बसना चाहते या फिर बस चुके है।
आखिर ऐसा कौन से काम इन 19 सालों में उत्तराखण्ड की सरकारों ने किया जो कि उत्तराखण्डवासियों को रिवर्स पलायन हेतु प्रोत्साहित करेगा। आवा अपुण घौर, मगर क्यों? इसका जबाब नहीं है सरकार के पास।
उत्तराखण्ड में पलायन के मूल कारण बेरोजगारी, स्वास्थ्य व शिक्षा है। पहाड़ों में रोजगार है नहीं, स्वास्थ्य सेवायें बद से बदतर हैं, जहां स्कूलों के हालात किसी से छुपे नहीं है। ऐसे में सरकार का यह रैबार मात्र दिखावा नहीं तो क्या है।
पहाड़ी जिलों से पलायन को रोकने के लिए और रिवर्स पलायन के लिए सबसे जरूरी नेताओं के राजनीतिक पलायन को रोकना है। मगर उत्तराखण्ड में जैसे ही नेता चुनाव जीतता है वे देहरादून में अपना आशियाना ढूंढता है। इसका जबाब सरकार के पास है नहीं। देहरादून में बैठकर पलायन की बात करना बहुत आसान है, लेकिन व्यवहारिक धरातल पर हकीकत तो कुछ और ही है।
सवाल यह भी है कि जो सरकार स्वयं स्थाई राजधानी गैरसैंण के लिए रिवर्स पलायन नहीं कर पाई और वो सरकार दून में बैठकर आम जनमान को क्या रैबार देगी। जबकि होना यह चाहिए था कि सरकार आमजन भावना का सम्मान करते हुए सर्वप्रथम दून से रिवर्स पलायन कर प्रदेश को राजधानी गैरसैंण घोषित करती और गैरसैंण से रैबार देती ‘आवा अपुण घौर’ तो प्रत्येक उत्तराखण्डवासी दौड़-दौड़कर अपने गांव लौट आता सरकार के साथ कंधा मिलाने को, लेकिन अफसोस यहां तो स्थिति एक दम अलग ही है यहां सरकार देहरादून से बिहारियों को रैबार दे रही है ‘आवा उत्तराखण्ड’ मनाओ ‘छट पर्व’ यहां छट पर्व की छुट्टी है। अफसोस राज्य के अभी तक के सत्तासीन लोगों ने कभी राज्य की जनता के सपनों का उत्तराखंड बनाने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया। आखिर कौन समझेगा पहाड़ का दर्द को जो आज भी पहाड़ जैसा ही है।