उत्तराखंड में जिसकी रही सरकार लोकसभा में नहीं हुआ बेड़ा पार

भाजपा राष्ट्रवाद, कांग्रेस को कर्जमाफी पर भरोसा

उत्तराखंड में लोकसभा की पांच सीटें और 2014 के आम चुनाव में इन सभी सीटों पर भाजपा ने कब्जा किया था। आम चुनाव के बाद यहां एक बार विधानसभा, विधानसभा की एक सीट पर उपचुनाव और एक बार नगर निकाय के चुनाव हुए हैं। इन सभी चुनावों में भाजपा का बेहतरीन प्रदर्शन रहा है।
2017 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 70 में से 57 सीटें जीतीं और राज्य की सत्ता में लौटी। थराली विधानसभा उपचुनाव भी उसने जीता। 2018 के अंत में हुए निकाय चुनावों में भाजपा ने सात में से पांच निगमों में जीत हासिल की. इस कदर 2014 से अब तक हुए हर चुनाव में भाजपा ने इस प्रदेश में बढ़त ली है, मगर राज्य निर्माण के बाद से अब तक इतिहास को देखें, तो इस प्रदेश में जिस पार्टी की सरकार रही है, लोकसभा चुनाव में उसकी बेड़ा अटकता रहा है।

2004 में यहां कांग्रेस की सरकार थी, मगर पांच में तीन लोकसभा सीटें भाजपा जीत ले गयी। 2009 में यहां भाजपा की सरकार थी, तब सभी पांच लोकसभा सीटें कांग्रेस जीत गयी। 2014 में यहां कांग्रेस की सरकार थी, तो सभी पांच लोकसभा सीटें भाजपा के खाते में चलीं गयीं। इस बार राज्य में भाजपा की सरकार है। भाजपा इस मिथक को तोड़ पाती है या नहीं, यह देखने वाली बात होगी। इन पांचों सीटों पर 11 अप्रैल को मतदान होना है। यह भी दिलचस्प है कि लोकसभा के उप चुनावों में भी यहां नजीते बदलते रहे हैं।

2007 में यहां पहली बार एक लोकसभा सीट टिहरी गढ़वाल के उपचुनाव हुआ। इस चुनाव में मतदाताओं ने कांग्रेस को बदल कर भाजपा को जिताया। 2012 में इसी लोकसभा सीट के लिए दूसरी बार उपचुनाव हुआ। इस चुनाव में भी मतदाताओं ने वही किया, कांग्रेस को बदल कर भाजपा को चुन लिया।
उत्तराखंड में राष्ट्रवाद बड़ा मुद्दा है। लिहाजा भाजपा राष्ट्रवाद के मुद्दे पर सवार है और उसके सामने सैन्य बहुल इस प्रदेश में पांचों लोकसभा सीटों पर दोबारा काबिज होने की चुनौती है। भाजपा को चुनौती देने के लिए कांग्रेस प्रदेश में बेरोजगारी, किसानों की कर्जमाफी, लोकायुक्त की नियुक्ति व पलायन जैसे मुद्दों को भुनाने में जुटी है। पुलवामा हमले के बाद उत्तराखंड में जनभावना का ज्वार दिखा। राज्य के दो मेजर समेत चार जवान शहीद हुए।हमले से स्तब्ध उत्तराखंड ने तब संतोष की सांस ली जब आतंकियों के खिलाफ एयर स्ट्राइक हुई। भाजपा ने जनभावना भांपकर राष्ट्रवाद के मुद्दे को मजबूती से पकड़ा। रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण ने देहरादून में शहीद परिवारों की नारियों के पांव छुये, तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी तीन शहीदों के घर जाकर तीन लाख सैन्य मतदाताओं का मर्म पकड़ने की कोशिश की। पीएम नरेंद्र मोदी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी चुनावी जनसभा में राष्ट्रवाद को बड़ा हथियार बना चुके हैं।

वहीं, राहुल ने देहरादून से भाजपा सांसद बीसी खंडूड़ी को रक्षा मामलों की संसदीय समिति से हटाने को मुद्दा बनाया तो उनके बेटे मनीष खंडूड़ी को कांग्रेस में लाये।

पुलवामा हमले के बाद उत्तराखंड में राष्ट्रीय भावना का ज्वार है। वहीं, कांग्रेस मतदाताओं को याद दिलाने में जुटी है कि वादे के बावजूद भाजपा ने किसानों की कर्जमाफी से मुंह मोड़ लिया। भाजपा भ्रष्टाचार पर जीरो टाॅलरेंस का दावा कर रही है, तो कांग्रेस ने घोषणा के बावजूद लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं किये जाने को मुद्दा बनाया है. बेरोजगारी भी बड़ा मुद्दा है। प्रदेश में 9.50 लाख पंजीकृत बेरोजगार हैं। वेतन और पेंशन के बढ़ते बोझ के चलते सरकार 45 हजार से अधिक रिक्त पदों को भरने का साहस नहीं कर पा रही है।
इस बार भाजपा में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत यहां भाजपा का सबसे बड़ा चेहरा हैं। उनकी प्रतिष्ठा यहां दांव पर लगी है। कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह सबसे बड़ा चेहरा हैं, जिनके भरोसे पार्टी नैया पार उतारना चाह रही है।

बात करें गुटाबाजी की तो कांग्रेस की गुटबाजी खुले तौर पर है, वहीं भाजपा में हाईकमान के डर से ये बहुत खुलकर नहीं दिखती। कांग्रेस में सीधे-सीधे दो गुट दिखाई पड़ते हैं। एक गुट में प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह और नेता प्रतिपक्ष डाॅ. इंदिरा हृदयेश हैं, तो दूसरा गुट राष्ट्रीय महासचिव हरीश रावत से जुड़ा है। बहरहाल 11 अप्रैल का इंतजार अभी बाकी है।

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