सही दिशा में नहीं जा रहा देश
पी के खुराना
राजनीतिक रणनीतिकार
सर्दी अभी पूरी तरह से आई नहीं है पर उसकी आहट है और आहट ने ठिठुरन ला दी है, लोग कंपकंपाने लगे हैं। अथर्व वेद में हालांकि कामना की गई है ‘जीवेम शरदः शत’ जिसका अर्थ है कि हम सर्दियों की ऋतु सौ बार देखें। इसे और सरल शब्दों में कहें तो यह सौ साल जीने की कामना है।
माना यह जाता है कि अगर हमने सर्दियों का सीजन पार कर लिया तो हम एक वर्ष और जी लेंगे। जी हां, सर्दियों का सीजन ऐसा ही कठिन होता है, और हमारी सरकार इसे सच करने पर आमादा है, यही कारण है कि सर्दियों से पहले ही ठिठुरन होने लगी है। सरकार की ओर से एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर आॅफ सिटिजन्स का विस्तार करके इसे देश भर में लागू करने की योजना है, इसी तरह नागरिकता संशोधन विधेयक और एक सामान्य सिविल कोड भी लाया जाएगा, इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय में राम जन्म भूमि विवाद की सुनवाई पूरी हो चुकी है और उस पर भी फैसला आने वाला है। जनता पर और देश के संविधान पर इन सबका दूरगामी असर होगा। बैंकिंग नियमों का संशोधन भी नए वर्ष की शुरुआत से लागू हो जाएगा, जिसमें नकदी निकासी पर नए प्रतिबंध तो लगेंगे ही, आॅनलाइन ट्रांजेक्शन तथा एनईएफटी पर भी शुल्क का प्रावधान होगा।
यह सही है कि सरकार को व्यवसाय में नहीं होना चाहिए, ज्यादातर सरकारी उपक्रम घाटे में होते हैं और उनके खर्चे पूरे करने के लिए आम जनता को टैक्स भरना पड़ता है, लेकिन निजीकरण के नाम पर वर्तमान सरकार सिर्फ अपनी पसंद के गिने-चुने अरबपतियों को ही फायदा पहुंचाने की जुगत में है। इसका परिणाम यह होगा कि पूरे देश की अर्थव्यवस्था कुछ हाथों में सिमट जाएगी और उनका रुतबा देश के शासकों से भी ऊपर चला जाएगा, कुछ ही वर्षों में वे इस काबिल हो जाएंगे कि देश के शासक पर भी अपना हुक्म चला सकें। यह ईस्ट इंडिया कंपनी जैसे हालातों में लौटने की शुरुआत है। हम आज इस मिथक में जी रहे हैं हमारे सुप्रीम लीडर कुंवारा हैं, उनका कोई परिवार नहीं है, उनकी निजी संपत्ति नहीं है, वे निःस्वार्थ भाव से देश की सेवा कर रहे हैं और देश की छवि सुधार रहे हैं।
हां, यह सही है कि मोदी कुंवारे हैं। हां, यह सही है कि उनके परिवार का कोई व्यक्ति किसी लाभ के पद पर नहीं है। हां, यह सही है कि उनकी निजी संपत्ति का कोई ब्योरा नहीं है। हां, यह सही है कि देश की छवि में सुधार हुआ है। हां, यह भी सही है कि वे देश की सेवा कर रहे हैं, सिर्फ इतना ही अंतर है कि उसमें भाव निःस्वार्थ नहीं है। अपनी इस बात का खुलासा करने से पहले, आइए, एक और उदाहरण की बात करते हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी बहुत सादा जीवन जीती हैं, उनकी सादी सफेद साड़ी उनकी सादगी का बखान करती है, उनकी निजी संपत्ति का भी ब्यौरा नहीं है, वह भी अविवाहित हैं और अपने ढंग से वे भी देश सेवा में जुटी हैं। और यह भी सच है कि भाव वहां भी निःस्वार्थ नहीं है। हमारे वर्तमान शासक हिंदुत्व को भुना रहे हैं और आज उनका यूएसपी विकास नहीं है, हिंदुत्व है। वे इसी मुद्दे पर अपने मतदाताओं को रिझाए और बरगलाए रख सकते हैं। इस के बावजूद अगर भाजपा लगातार चुनाव जीत रही है तो इसका कारण मोदी तो हैं ही, साथ ही कमजोर और निकम्मा-नकारा विपक्ष भी इसका जिम्मेदार है। विपक्ष के पास मोदी की नीतियों की कोई काट नहीं है, कोई बेहतर योजना नहीं है और उसकी विश्वसनीयता भी सवालों के घेरे में है। यही कारण है कि मोदी लगातार विकल्पहीनता, यानी ‘टीना फैक्टर’ ‘देअर इज नो आल्टरनेटिव’ को दुहते रह पा रहे हैं। देश भर में एनआरसी के विस्तार का परिणाम वही होगा जो विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने पर हुआ था, यानी समाज में विभाजन की लकीरें कुछ और गहरी हो जाएंगी।
खेद की बात है कि छुटभैयों को भड़काना बहुत आसान है और राजनीतिज्ञ अपने इस काम में बहुत माहिर हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं द्वारा संचालित वाट्सऐप ग्रुपों के माध्यम से समाज में लगातार जो जहर फैलाया जा रहा है, वह बहुत खतरनाक है और अंततः हम लोग ही इसकी कीमत चुकाएंगे, वह भी अपनी जान देकर, किसी दंगे का शिकार बनकर, किसी विधर्मी पड़ोसी के गुस्से का शिकार बनकर। अब किसी एक दल को दोष देना मुश्किल है क्योंकि हर राजनीतिक दल अब मोदी की दिखाई राह पर ही चल रहा है, कहीं कोई फर्क नहीं है। झूठे संदेश, आत्म-प्रशंसा की झूठी घटनाओं का जरिए विरोधियों के अपमान के लिए झूठ और सच का घालमेल, भावनाएं भड़काने का प्रयत्न, असली मुद्दों से ध्यान बंटाने की जुगत हर राजनीतिक दल के डीएनए में घुलमिल गए हैं, शुरुआत चाहे किसी ने भी की हो। झूठ और फरेब का यह जाल अब संगठित अपराध सरीखा है और इसने पूरे समाज को जकड़ रखा है। हम गुस्से और विवशता की भावना के साथ एक कुंठित जीवन जी रहे हैं। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की कविता ‘चित्त जेथा भयशून्य’ पता नहीं किस महासागर में विसर्जित कर दी गई है। हर आदमी डरा-डरा सा है और कुछ भी बोलने से घबरा रहा है। शासन इतना असंवेदनशील, कू्रर और शक्तिशाली है कि उसका विरोध करने का कोई सार्थक परिणाम नजर नहीं आता, इसलिए हर आदमी चुप्पी को ही बेहतर मानने के लिए विवश है।
यह चुप्पी शुभ नहीं है, खतरनाक है क्योंकि समाज में विघटन की साजिश कई मोर्चों से चल रही है। अगर एक मोर्चा शासक दल का है तो दूसरा मोर्चा अन्य वर्गों का भी है। हर शाख पे उल्लू ही उल्लू है जिसका परिणाम शुभ हो ही नहीं सकता। हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जहां विवशता हमारी नियति बन गई है, इसीलिए हमें सर्दियों से पहले ही ठिठुरन महसूस हो रही है और यह सर्दियां हम पार करके चाहे जितना लंबा जीवन पा लें, वह सुख भरा हो, इसकी कोई गारंटी नहीं है।