स्वयंभू भगवान टपकेश्वर

पहाड़ की गोद में विराजमान भगवान टपकेश्वर स्वयंभू शिवलिंग मंदिर की प्राकृतिक छटा निराली है। जहां पहाड़ी गुफा में स्थित यह स्वयंभू शिवलिंग भगवान की महिमा का आभास कराती है तो वहीं मंदिर के पास से गुजरती टोंस नदी की कलकल बहतीं धाराएं द्रोण और अश्वत्थामा के तप और भक्ति की गाथा सुनाती है।
महर्षि द्रोण और अश्वत्थामा की तपस्या और शिव की पाठशाला की गवाह रही यह नदी भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करती है। इस मंदिर की चर्चा महाभारत में भी है। इस शिवलिंग की सबसे रोचक बात यह है कि द्वापर युग में शिवलिंग पर दूध की धाराएं गिरती थी।
कहते हैं कि दूध से वंचित गुरु द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा ने भगवान भोलेनाथ की छह माह तक कठोर तपस्या की। अश्वत्थामा की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें दूध प्राप्ति का आशीर्वाद दिया और पहली बार अश्वत्थामा ने इसी मंदिर में दूध का स्वाद चखा था। टपकेश्वर को दूधेश्वर भी कहा जाता है।
द्रोणनगरी में स्थित टपकेश्वर स्वयंभू शिवलिंग महर्षि द्रोणाचार्य की सिर्फ तपस्थली नहीं रही, बल्कि यहीं पर गुरु द्रोण ने भगवान शिव से शिक्षा भी ग्रहण की थी। द्वापर युग में टपकेश्वर को तपेश्वर और दूधेश्वर के नाम से भी जाना जाता था।
कहा जाता है कि पहाड़ी गुफा में स्थित शिवलिंग स्थापित नहीं किया गया बल्कि स्वयं प्रकट हुआ है। इसलिए इसे स्वयंभू कहा जाता है। यहां देव से लेकर गंधर्व तक भगवान भोलेनाथ के दर्शन के लिए आते हैं। पास ही कलकल बहती टोंस नदी जो द्वापर युग में तमसा नदी के नाम से था, में जल क्रीडा करते थे। कहा जाता है कि जब महर्षि द्रोण हिमालय की ओर तपस्या करने के लिए निकले तो ऋषिकेश में एक ऋषि ने उन्हें तपेश्वर में भगवान भोले की उपासना करने की सलाह दी। गुरु द्रोण अपनी पत्नी कृकृपि के साथ तपेश्वर आ गए। गुरु द्रोण जहां शिव से शिक्षा लेने केलिए तपस्या करते थे, वहीं उनकी पत्नी कृकृपि पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए जप करती थीं।
भगवान शिव प्रसन्न हुए और कृकृपि को अश्वत्थामा जैसा पुत्र प्राप्त हुआ, वहीं द्रोण को शिक्षा देने केलिए भगवान रोज आने लगे। मां कृकृपि को दूध नहीं होता था, इसलिए वो अश्वत्थामा को पानी पिलाती थीं। मां के दूध से वंचित अश्वत्थामा को मालूम ही नहीं था कि श्वेत रंग का यह तरल पदार्थ क्या है। अपने अन्य बाल सखाओं को दूध पीते देखकर अश्वत्थामा भी अपनी मां से दूध की मांग करते थे।
दिन प्रतिदिन अश्वत्थामा के बढ़ते हठ के कारण महर्षि द्रोण भी चिंतित रहने लगे। एक दिन महर्षि द्रोण अपने गुरु भाई पांचाल नरेश राजा द्रुपद के पास गए। राजा दु्रपद धन वैभव के मद में चूर थे। गुरु द्रोण के आगमन पर प्रसन्न तो हुए। लेकिन उन्हें द्रोण के मुख से भगवान शिव की महिमा पसंद नहीं आई।
गुरु द्रोण ने उनसे अपने पुत्र के लिए एक गाय की मांग की। राजसी घमंड में चूर पांचाल नरेश द्रुपद ने कहा कि अपने शिव से गाय मांगों, मेरे पास तुम्हारे लिए गाय नहीं है। यह बात महर्षि द्रोण को चुभ गई। वो वापस लौटे और बालक अश्वत्थामा को दूध के लिए शिव की आराधना करने को कहा। अश्वत्थामा ने छह माह तक शिवलिंग के सामने बैठकर भगवान की कठोर आराधना शुरू कर दी तभी एक दिन अचानक श्वेत तरल पदार्थ की धारा शिवलिंग के ऊपर गिरने लगी।
यह देखकर अश्वत्थामा ने अपने माता पिता को इस आश्चर्य के बारे में बताया। महर्षि द्रोण ने जब देखा तो समझ गए कि यह सब भगवान शिव की महिमा है। फिर एक दिन भगवान भोलेनाथ उन्हें दर्शन देकर बोले की अब अश्वत्थामा को दूध के लिए व्याकुल नहीं होना पड़ेगा। उसी धारा से अश्वत्थामा ने पहली बार दूध का स्वाद चखा। उस समय जो भी भक्त भोले के दर्शन करने तपेश्वर आता था, वो प्रसाद के रूप में दूध प्राप्त करता था।
कहते हैं यह सिलसिला कलयुग तक चलता रहा। पर बाद में भोले के इस प्रसाद का अनादर होने लगा। यह देखकर शिवशंकर ने दूध को पानी में तब्दील कर दिया, और धीर धीरे यह पानी बूंद बनकर शिवलिंग पर टपकने लगा। आज तक यह ज्ञात नहीं हुआ कि यह पानी कहां से शिवलिंग के ऊपर टपकता है। पानी टपकने के कारण कलयुग में यह मंदिर भगवान टपकेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हो गया। हालांकि अब इस स्वयंभू शिवलिंग के चारों ओर कई मंदिर बन गए हैं। जिसमें वैष्णव माता का मंदिर भी शामिल है। यहां आज भी वही शांति और भक्ति की अनुभूति होती है, जो कथाओं में सुनने को मिलती है। ऐसी आस्था है कि आज भी देश और गंधर्व यहा भगवान भोले के दर्शन को आते हैं।

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