श्रद्धा से करें श्राद्ध

पौराणिक मान्यता के अनुसार पितृपक्ष में पूर्वजों की आत्माएं धरती के सन्निकट होती हैं। ज्योतिषियों के अनुसार इस समय चंद्रमा, धरती के सबसे ज्यादा नजदीक होता है। पितृलोक का स्थान चंद्रलोक से ऊपर माना गया है। मान्यतानुसार ऐसी ग्रहीय स्थिति में पितृलोक में निवास करने वाले पूर्वजों की आत्माएं धरती पर रहने वाले अपने वंशजों के भी सर्वाधिक करीब होती हैं तथा कौओं के माध्यम से अपने वंशजों द्वारा अर्पित भोज्य पदार्थों को स्वीकार करती हैं।
पुनर्जन्म सनातन हिंदू धर्म की आधारभूत मान्यता है। माना जाता है कि अपने कर्मफल के अनुसार व्यक्ति को पुनर्जन्म लेना पड़ता है। कतिपय स्थितियों में पुनर्जन्म तुरंत नहीं होता। असंतोष और अतृप्ति की अवस्था में हुई मृत्यु के कारण अथवा बुरे-अच्छे कर्मों को भोगने के लिए आत्माएं लंबे समय तक अशरीरी अवस्था में भी रहती हैं। ये अशरीरी आत्माएं अपने कुल को प्रभावित करती हैं और उनके कृत्यों से प्रभावित होती हैं। यानी हिंदू धर्म के अनुसार संबंध इस लोक तक ही सीमित नहीं होते। इनका विस्तार अन्य लोकों तक होता है और मरणोत्तर स्थिति में भी व्यक्ति पूर्वकालीन संबंधों से प्रभावित होता है। इसके अतिरिक्त भारतीय संस्कृति में माता-पिता को देवताओं के समान माना जाता है और शास्त्रों के अनुसार यदि माता-पिता प्रसन्न होते हैं, तो सभी देवतादि स्वयं ही प्रसन्न हो जाते हैं। इस मान्यता के कारण ही हिंदू धर्म में विश्वास किया जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति तीन ऋणों के साथ पैदा होता है। ये हैं- देव ऋण, ऋषि ऋण व पितृ ऋण। इनमें से पितृ ऋण के निवारण हेतु ही पितृ यज्ञ का उल्लेख मिलता है। इसे सरल शब्दों में श्राद्ध कर्म भी कहते हैं। पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक जो कर्म किया जाता है, वही श्राद्ध है। देव गुरु बृहस्पति के अनुसार जिस कर्म विशेष में अच्छी प्रकार से पकाए हुए उत्तम व्यंजन को दूध, घी व शहद के साथ श्रद्धापूर्वक पितरों के नाम से गाय, ब्राह्मण आदि को प्रदान किया जाता है, वही श्राद्ध है। ब्रह्मपुराण में तो यहां तक कहा गया है कि श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाला मनुष्य अपने पितरों के अलावा ब्रह्मा, रुद्र, अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, वायु, विश्वदेव व मनुष्यगण को भी प्रसन्न करता है। हिंदू धर्म की मान्यतानुसार मृत्यु के बाद मनुष्य का पंचभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश) से बना स्थूल शरीर तो यहीं रह जाता है, लेकिन सूक्ष्म शरीर (आत्मा) मनुष्य के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर द्वारा बनाए गए कुल 14 लोकों में से किसी एक लोक को जाता है। यदि मनुष्य ने अपने जीवन में अच्छे कर्म किए होते हैं, तो उसकी आत्मा स्वर्ग लोक, ब्रह्म लोक या विष्णु लोक जैसे उच्च लोकों में जाती है जबकि यदि मनुष्य ने पापकर्म ही अधिक किए हों, तो उसकी आत्मा पितृलोक में चली जाती है और इस लोक में गमन करने हेतु उन्हें भी शक्ति की आवश्यकता होती है, जिसे वे अपनी संतति द्वारा पितृ पक्ष में किए जाने वाले श्राद्ध के भोजन द्वारा प्राप्त करती है। शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध कुल बारह प्रकार के माने गए हैं-नित्य श्राद्ध, नैमित्तिक श्राद्ध, काम्य श्राद्ध, वृद्धि श्राद्ध, सपिंड श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, गोष्ठ श्राद्ध, शुद्धयर्थ श्राद्ध, कर्मांग श्राद्ध, दैविक श्राद्ध।

सांवत्सरिक श्राद्ध
सांवत्सरिक श्राद्ध को अन्य प्रकार के श्राद्धों में श्रेष्ठ माना गया है और भविष्य पुराण के अनुसार भगवान सूर्यदेव स्वयं कहते हैं कि- जो व्यक्ति सांवत्सरिक श्राद्ध नहीं करता, उसकी पूजा न तो मैं स्वीकार करता हूं, न ही भगवान विष्णु, न रुद्र और न ही अन्य देवगण ही ग्रहण करते हैं। अतएव व्यक्ति को प्रयत्नपूर्वक प्रतिवर्ष मृत व्यक्ति की पुण्य तिथि पर इस श्राद्ध को जरूर संपन्न करना चाहिए। श्राद्ध के मूलतः कुल चार भाग तर्पण, भोजनादि व पिंडदान, वस्त्रदान व दक्षिणादान माने गए हैं, जबकि शास्त्रों के अनुसार ‘गया जी’ को श्राद्ध का सबसे श्रेष्ठ स्थान माना गया है। भारतीय संस्कृति के अनुसार पितृपक्ष में तर्पण व श्राद्ध करने से व्यक्ति को पूर्वजों का आर्शीवाद प्राप्त होता है, जिससे घर में सुख-शांति व समृद्धि बनी रहती है। हिंदू शास्त्रों के अनुसार जिस तिथि को जिस व्यक्ति की मृत्यु होती है, पितृ पक्ष में उसी तिथि को उस मृतक का श्राद्ध किया जाता है। दाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति के पिता की मृत्यु तृतीया को हो, तो पितृ पक्ष में उस मृतक का श्राद्ध भी तृतीया को ही किया जाता है, जबकि यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु की तिथि ज्ञात न हो, तो ऐसे किसी भी मृतक का श्राद्ध अमावस्या को किया जाता है। इसके अतिरिक्त श्राद्ध की दृदृष्टि से कुछ अन्य तिथियां भी महत्त्वपूर्ण हैं। आश्विन कृष्ण प्रतिपदा को नाना-नानी के श्राद्ध के लिए उत्तम माना गया है। आश्विन कृकृष्ण पंचमी को परिवार के उन पितरों का श्राद्ध करना चाहिए, जिनकी मृत्यु अविवाहित अवस्था में हो गई हो। आश्विन कृष्ण नवमी को माता व परिवार की अन्य महिलाओं के श्राद्ध के लिए उत्तम माना गया है। आश्विन कृष्ण एकादशी व द्वादशी को उन लोगों के श्राद्ध के लिए उत्तम माना गया है, जिन्होंने संन्यास ले लिया हो। आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को उन पितरों का श्राद्ध किया जाता है, जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो। आश्विन कृष्ण अमावस्या को सर्व-पितृ अमावस्या भी कहा जाता है और इस दिन सभी पितरों का श्राद्ध किया जाता है।

कौए और श्राद्ध
पौराणिक मान्यता के अनुसार पितृ पक्ष में पूर्वजों की आत्माएं धरती के सन्निकट होती हैं। ज्योतिषियों के अनुसार इस समय चंद्रमा, धरती के सबसे ज्यादा नजदीक होता है। पितृलोक का स्थान चन्द्रमा के ऊपर माना गया है। मान्यतानुसार ऐसी ग्रहीय स्थिति में पितृलोक में निवास करने वाले पूर्वजों की आत्माएं धरती पर रहने वाले अपने वंशजों के भी सर्वाधिक करीब होती हैं तथा कौओं के माध्यम से अपने वंशजों द्वारा अर्पित भोज्य पदार्थों को स्वीकार करती हैं। आश्चर्य की बात यह भी है कि यदि हम सामान्य परिस्थितियों में कौओं को भोजन करने के लिए आमंत्रित करें, तो वे नहीं आते, लेकिन पितृपक्ष में अकसर कौओं को पितरों के नाम पर अर्पित किए जाने वाले श्राद्ध के भोजन को ग्रहण करते हुए देखा जा सकता है। इसलिए पितृ पक्ष में किए जाने वाले श्राद्ध के दौरान काफी अच्छा व स्वादिष्ट भोजन पकाया जाता है, क्योंकि मान्यता यह है कि इस स्वादिष्ट भोजन को व्यक्ति के पूर्वज ग्रहण करते हैं और संतुष्ट होने पर आशीर्वाद देते हैं। इससे पूरे साल भर धन-धान्य व समृद्धि की वृद्धि होती है, जबकि श्राद्ध न करने वाले अथवा अस्वादिष्ट, रूखा-सूखा, बासी भोजन देने वाले व्यक्ति के पितृ कुपित होकर श्राप देते हैं, जिससे घर में विभिन्न प्रकार के नुकसान, अशांति, अकाल मृत्यु व मानसिक उन्माद जैसी बीमारियां होती हैं। पूर्वजों का श्राप जन्म कुंडली में पितृ दोष योग के रूप में परिलक्षित होता है। मान्यता यह है कि पितर पक्ष पूरी तरह से हमारे पूर्वजों का समय होता है और इस समय में कोई भी मांगलिक कार्य नहीं करना चाहिए, बल्कि केवल शांतिपूर्ण तरीके से इस समय को ईश्वर के भजन कीर्तन आदि में व्यतीत करना चाहिए। श्रद्धा से किए जाने वाले वाला श्राद्ध व्यक्ति के जीवन को सुगम, स्वस्थ और समृद्ध बनाता है।

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