राजनीति के आगे नतमस्तक होता समाज
UK Dinmman
उत्तराखंड प्रदेश में छोटी सरकार हेतु चनुावी बिगुल बज चुका है। 18 नवंबर का दिन होगा चुनाव चिह्न ….. होगा के नारों के साथ प्रत्येक प्रत्याशी 5 साल के लिए समाज सेवा का संकल्प लेकर चुनावी मैदान में आम आदमी को लुभाने का प्रयास कर रहा है।
राष्ट्रीय पार्टी से लेकर क्षेत्रीय पार्टी व निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में है। यहां भी छोटी सरकार के लिए जंग दो राष्ट्रीय पार्टी भाजपा व कांग्रेस के ही बीच सिमटी दिखाई दे रही है। निकाय चुनाव नगरों को बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था प्रदान करने के लिए होते है किन्तु यहां पर भी केवल और केवल सत्ता लोलुपत्ता ही दिख रही है।
पिछले पांच सालों तक निकाय का केन्द्र बिन्दु रहे पार्षद आज नदारत है और भविष्य में पार्षद बनने के सपने संजोये हुए खिलाड़ी आज चुनावी मैदान में समाज सेवी का तगमा सीने में लगाये हाथ जोड़ते हुये लोगों के घर-घर हर समस्या का समाधान का वादा कर घुमते नजर आ रहे है। लेकिन बड़ा प्रश्न यही है जो बार-बार सोचने को विवश करता है आखिर एक समाज सेवी चुनावी मैदान में क्यों? ये सत्तालोलुपता नहीं तो क्या है।
मौका मिले, वो हमें ही मिले, किसी और को न मिले! यहां कुर्सी का सपना देखने वाले अनेक है। लेकिन कुर्सी पर बैठने वाले वो है जो सिर्फ अपने आकाओं की परिक्रमा, चटुकारिता कर उनके उनके नाम की माल जपते उनके आसपास घूमते है। छोटे कार्यकर्ता कतई कुर्सी पर बैठने उम्मीद इनसे न रखें क्योंकि अगली बार उनके परिवार से इनका उत्तराधिकारी तैयार है।
यहां बड़ा सवाल यह है कुर्सी पर बैठने वाले क्या वे बेहतर रूप से निकायों को चलाने के लिए ऐसा चाहते हैं? निश्चित तौर पर इस सवाल का जवाब, न ही होगा। क्योंकि ये सारे सत्तालोलुपता के नमूने हैं। मौका मिला है लपक लो, वरना अवसर निकल जायेगा। ये सिर्फ सत्ता का नशा ही है जो एक समाज सेवी को भी चुनाव में उतरने को विवश करता है।
सोचनीय प्रश्न यह है कि आज हम किस दिशा में जा रहे है या हम कितने दिशाहीन हो चुके है और हम लगातार चुनावी लोकतंत्र में अपना भाग्य खोज रहे है। आज समाज को राजनीति के आगे नतमस्क किया जा चुका जिस सच को हम आप नंगी आंखों से देख रहे है।