प्रज्ञा ठाकुर मुद्दा है ही नहीं
पीके खुराना
राजनीतिक रणनीतिकार
स्पष्ट है कि मोदी ग्रैंडमास्टर हैं। अपनी नायाब चाल से उन्होंने चुनाव का नेरेटिव ही बदल दिया है। मुद्दे पीछे छूट गए हैं और प्रज्ञा के अंटशंट बयान सबकी चर्चा का केंद्र बन गए हैं। इस बीच हम सब भूल गए हैं कि प्रज्ञा सिर्फ एक सीट से चुनाव लड़ रही हैं। यदि उनके अनर्गल बयानों पर राष्ट्रीय चैनलों में चर्चा बंद कर दी जाए, तो प्रज्ञा का प्रभाव व प्रासंगिकता सिर्फ भोपाल की सीट तक सीमित होकर रह जाएगी और जनहित के आवश्यक मुद्दों पर फोकस करना संभव हो जाएगा।
खुद को साध्वी कहने वाली प्रज्ञा सिंह ठाकुर का हालिया बयान फिर चर्चा का विषय बन गया है। प्रज्ञा ने दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय बाबरी मस्जिद के गुंबद पर चढ़कर उसे ढहाने में शामिल होने का दावा किया है। प्रज्ञा के बयान की सच्चाई का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अप्रैल 1988 में जन्मी प्रज्ञा तब साढ़े चार साल की रही होगी। इस बयान पर इससे आगे कोई और टिप्पणी करने की आवश्यकता ही नहीं है। प्रज्ञा ठाकुर सन् 2006 और 2008 में हुए मालेगांव बम ब्लास्ट की आरोपी है। प्रज्ञा को 2008 में गिरफ्तार किया गया था और अगले साल 2009 में महाराष्ट्र के एंटी टेरेरिस्ट स्क्वैड ने प्रज्ञा को चार्जशीट किया। उसके दो साल बाद सन् 2011 में नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी यानी, एनआईए ने जांच शुरू की, लेकिन सन् 2016 में नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी की चार्जशीट में प्रज्ञा का नाम नहीं था। सन् 2017 में एनआईए न्यायालय ने इस चार्जशीट को खारिज करते हुए कहा कि प्रज्ञा पर मुकद्दमा चलेगा। सन् 2018 में प्रज्ञा पर आतंकी घटना को अंजाम देने, आतंक का षड्यंत्र करने, हत्या, साजिश तथा विभिन्न समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाने के आरोप तय हुए। ये आरोप एनआईए न्यायालय ने तय किए हैं और उस समय महाराष्ट्र और केंद्र दोनों जगह भाजपा की सरकारें सत्ता में थीं।
पूरे देश और मीडिया में एक और मुद्दा भी छाया हुआ है। वह मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई द्वारा न्यायालय की एक अधीनस्थ कर्मचारी के साथ अवांछित व्यवहार से संबंधित है। मुख्य न्यायाधीश ने इसे षड्यंत्र बताते हुए न्यायालय की स्वतंत्रता पर हमले की दुहाई दी, मामले की सुनवाई के लिए बेंच का गठन किया और खुद आरोपित होने के बावजूद उस बेंच में शामिल हो गए। वह अपने पूर्ववर्ती मुख्य न्यायाधीश पर आरोप लगाने वालों में से एक थे कि बेंच के गठन में पूर्वाग्रह शामिल होता है, लेकिन इस मामले में बेंच का गठन करते समय वह अपने अधीनस्थ दो वरिष्ठतम जजों को बेंच में शामिल करना भूल गए। इतना ही नहीं, इस बेंच में एक भी महिला जज नहीं थी। मीडिया में ब्लॉग मंत्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुके अरुण जेटली ने मुख्य न्यायाधीश द्वारा न्यायालय की स्वतंत्रता पर हमले के बचाव में ब्लॉग लिखकर सरकार का बचाव किया। उसके बाद पहले मेधा पाटेकर, अरुंधति रॉय, अरुणा रॉय, कमला भसीन, अंजलि भारद्वाज, योगेंद्र यादव, हर्ष मंडर और आकार पटेल सरीखे 33 प्रमुख लेखकों, एक्टिविस्टों तथा राजनीतिक नेताओं ने मिलकर मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध लगे आरोपों की स्वतंत्र जांच की मांग की। फिर सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन तथा सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकार्ड एसोसिएशन की मांग के बाद तीन जजों की बेंच का गठन हो गया है, जो इस मामले की जांच करेगी और इस बेंच में एक महिला जज इंदिरा बैनर्जी भी शामिल हैं। न्यायालय ने इस आरोप की जांच का निर्णय भी किया कि मुख्य न्यायाधीश को त्यागपत्र देने के लिए विवश करना एक बड़े षड्यंत्र का हिस्सा है, जिसमें एक बड़ा कारपोरेट घराना और फिक्सर शामिल है, क्योंकि यह मुद्दा ऐन चुनाव के समय उठाया गया है। आलम यह है कि चुनाव का समय होने के बावजूद असली मुद्दे कहीं पीछे छूट रहे हैं और प्रज्ञा की बयानबाजी तथा मुख्य न्यायाधीश का मामला हर जगह चर्चा का विषय बन गए हैं। टीवी चैनलों पर गर्मा-गर्म बहस हो रही है, टीआरपी की बल्ले-बल्ले है और सब मजे ले रहे हैं। विपक्ष भी मोदी के बिछाए जाल में फंस गया है, क्योंकि विपक्ष का ध्यान भी इन्हीं मामलों पर केंद्रित हो गया है। स्पष्ट है कि मोदी ग्रैंडमास्टर हैं। अपनी नायाब चाल से उन्होंने चुनाव का नेरेटिव ही बदल दिया है। मुद्दे पीछे छूट गए हैं और प्रज्ञा के अंटशंट बयान सबकी चर्चा का केंद्र बन गए हैं। इस बीच हम सब भूल गए हैं कि प्रज्ञा सिर्फ एक सीट से चुनाव लड़ रही हैं। यदि उनके अनर्गल बयानों पर राष्ट्रीय चैनलों में चर्चा बंद कर दी जाए, तो प्रज्ञा का प्रभाव व प्रासंगिकता सिर्फ भोपाल की सीट तक सीमित होकर रह जाएगी और जनहित के आवश्यक मुद्दों पर फोकस करना संभव हो जाएगा। दरअसल, विपक्ष मोदी की रणनीति को समझ ही नहीं पा रहा है और वह बार-बार मोदी के जाल में फंसता नजर आता है।
पांच साल सत्ता में रहकर बड़े-बड़े नारे देने के बावजूद आज मोदी धर्म और सेना के नाम पर वोट मांगने के लिए मजबूर हैं। जीएसटी अगर इतनी सफल थी, तो उसके नाम पर वोट क्यों नहीं मांगे जा रहे, नोटबंदी अगर काले धन और आतंकवाद के खात्मे के लिए रामबाण थी, तो आज भाजपा के नेरेटिव से नोटबंदी की चर्चा गायब क्यों है? यह क्यों कहा जा रहा है कि रोजगार पाने के लिए युवा वर्ग को मोदी की अगली टर्म का इंतजार करना होगा? स्मार्ट सिटी का मुद्दा रसातल में क्यों चला गया? हम एक पुरातन सभ्यता हैं, जिस पर हमें गर्व है और हमारे देश में गणतंत्र है, जिसका मतलब है कि शासन-प्रशासन में जनता की भागीदारी होगी व जनता की इच्छा से सरकार चलेगी। गणतंत्र का मतलब यह कतई नहीं है कि हम पांच साल में सिर्फ एक बार मतदान करेंगे और उसके बाद नीति-निर्माण में हमारी कोई भूमिका नहीं होगी।
लोकतंत्र की मौलिक आवश्यकता है कि आर्थिक और सामाजिक असमानता दूर हो, हर नागरिक को भोजन, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा तथा न्याय उपलब्ध हो। हमें सोचना है कि क्या हमारी वर्तमान व्यवस्था लोकतंत्र की इस बुनियादी आवश्यकता को पूरा कर पा रही है? क्या सभी नागरिकों को ससम्मान जीवन का अधिकार मिल चुका है? किसान आज भी आत्महत्या कर रहे हैं। जिस आदमी को भोजन नसीब नहीं, जिसके सिर पर छप्पर नहीं, वह क्या आवाज उठाएगा, लोकतंत्र को वह क्या समझ पाएगा और उसकी भागीदारी क्या होगी? यह एक विचारणीय प्रश्न है कि हम अपने देश के नागरिकों की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए क्या कर रहे हैं? लब्बोलुआब यह है कि मतदान के समय हमें यह देखना है कि हम जिसे वोट दे रहे हैं, क्या वह इन मुद्दों की बात कर रहा है या नहीं? इसी में हमारी और लोकतंत्र, दोनों की भलाई है।