मदमहेश्वर

रूद्रप्रयाग जिले के कालीमठ से 25 कि.मी. चढ़ाई का रास्ता नदी घाटी से गुजरता है। समुद्रतल से 3289 किमी की ऊंचाई पर स्थित मद्महेश्वर अद्भूत प्राकृतिक सौदर्य के बीच रसा बसा है। यहां की नैसिर्गिक सुंदरता के कारण ही कहते है शिव-पार्वती ने मधुचन्द्र रात्रि यहां मनायी थी। मान्यता है कि शिव पावर्ती का विवाह भी पास ही त्रियुगीनारायण में हुआ था। मद्महेश्वर मन्दिर तथा यहां की पवित्र आभा को देखकर सहज ही किसी ने मन में वैराग्य उमड़ने लगता है। मद्महेश्वर मदिंर तराशे गए पत्थरों तथा काष्ठ छत्रयुक्त है। मदिंर का काल चैदहवीं सदी के आस -पास तपर्ण का विशेष महात्मय यहां का माना जाता है। मद्महेश्वर मंदिर में रखी हर-गौरी ,गणेश, कालभैरव की चांदी की मूर्ति तथा अन्य देवाभूषण पंरपरागत ढंग से डोली में रखकर यंहा के कपाट बंद होने पर उखीमठ गद्दी स्थल लाए जाते है। उत्सव डोली पहने दिन गौडार गांव, दूसरे दिन रासी , तीसरे दिन गिरिया गांव तथा चैथे दिन अपने शीतकालीन मठ उखीमठ पहुचती है। हजारों की संख्या में क्षेत्रीय स्त्री पुरूष उखीमठ ओंकारेश्वर मंदिर से उत्सव डोली पहुंचते ही अपार जन समूह मद्महेश्वर के दर्शनों को उमड़ पडता है। शीतकाल में मद्महेश्वर की पूजा यही होती है। मद्महेश्वर जाने के लिए केदारनाथ की तरह घोडा, कंडी नहीं है। यहां अपने खाने-पीने व रहने के लिए स्वयं ही व्यवस्था करनी पड़ती है। रात्रि में ठहरने के लिए मदिर समिति की धर्मशाला है

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