खाली नाम के महाराज . . .

प्रदेश के राजनीति में सबसे भारी भरकम कद काठी और आवाज वाले सतपाल महाराज को भाजपा ने पिछले चार सालों से नम्बर दो का बनाकर रख दिया।

सतपाल महाराज ने 90 के दशक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। 1991 में उन्हें उत्तर प्रदेश की प्रदेश कांग्रेस समिति का सदस्य बनाया गया। 1994 में उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन के तहत बनी उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष परिषद् के प्रमुख सदस्य के तौर पर भी उन्होंने अहम भूमिका निभाई और खुद को स्थापित किया। 1996 में महाराज पहली बार पौड़ी संसद क्षेत्र से लोकसभा सांसद बने। सतपाल महाराज ने उत्तराखंड के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यही वो सबसे बड़ा कारण है कि महाराज एक बार प्रदेश के कमान अपने हाथों में लेना चाहते है।

कांग्रेस में रहते हुए कई दिग्गज महाराज और मुख्यमंत्री की कुर्सी के बीच में उनके लिए रोड़े थे। जिसे देखते हुए 2017 विधानसभा से पहले महाराज ने यह कहते हुए भाजपा का दामन थाम लिया था कि उनकी छवि हिन्दुत्ववादी नेता की है, जो कांग्रेस से मेल नहीं खाती। 2017 में विधानसभा चुनाव महाराज ने मुख्यमंत्री बनने की महत्वकांक्षा के चलते ही लड़ा। 2017 में भी मुख्यमंत्री की दौड़ में महाराज का नाम सबसे ऊपर पहली प्राथमिकता में था लेकिन एकाएक भाजपा ने त्रिवेन्द्र को राज्य की कमान सांप दी। भाजपा ने सतपाल महाराज को मुख्यमंत्री की कुर्सी का ख्वाब दिखाकर नम्बर दो में फिक्स कर दिया।

मार्च 2021 में भाजपा हाई कमान ने एक बार फिर मुख्यमंत्री बदलने की कवायद शुरू की लेकिन यहां बाजी पौड़ी सांसद तीरथ सिंह मार ले गये और महाराज एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी से दूर हो गये। सतपाल महाराज का दर्द यह भी है कि जिस आकांक्षा से महाराज ने भाजपा का दामन थामा था वो सम्मान उन्हें कतई नहीं मिला पाया बल्कि विगत सवा चार साल से उनके पर कतर कर रखे गए।

महाराज को भाजपा सरकार में मंत्री के पद से अवश्य नवाजा लेकिन आरएसएस परिपाटी की राजनीति में भाजपा ने इन्हें हमेशा अछूत ही माना। जिसकी एक बानगी यह है कि साढे़ चार साल में तीसरी बार सतपाल महाराज की दावेदारी की अनदेखी करके भाजपा ने युवा नेता धामी पर विश्वास किया और महाराज को यह अहसास करवा दिया कि आप खाली नाम के ‘महाराज’ है प्रदेश के नहीं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *