दिल्ली की सड़क पर किसान मार्च आहट है डगमगाते लोकतंत्र का
UK Dinmaan
पुण्य प्रसून बाजपेयी
कोई नंगे बदन। कोई गले में कंकाल लटकाये हुये। तो कोई पेट पर पट्टी बांधे हुये। कोई खुदकुशी कर चुके पिता की तस्वीर को लटकाये हुये। अलग अलग रंग के कपड़े। अलग अलग झंडे-बैनर । और दिल्ली की कोलतार व पत्थर की सड़कों को नापते हजारों हजार पांव के सामानातांर लाखों रुपये की दौडती भागती गाड़िया। जिनकी रफ्तार पर कोई लगाम ना लगा दें तो सड़कों की तादाद में पुलिसकर्मियो की मौजूदगी। ये नजारा भी है और देश का सच भी है। कि आखिर दिल्ली किसकी है। फिर भी दिल्ली की सडकों को ही किसान ऐसे वक्त नापने क्यों आ पहुंचा जब दिल्ली की नजरें उन पांच राज्यो के चुनाव पर है जिसका जनादेश 2019 की सियासत को पलटाने के संकेत भी दे सकता है और कोई विकल्प है नहीं तो खामोशी से मौजूदा सत्ता को ही अपनाये रह सकता है। वाकई सियासी गलियारो की सांसे गर्म है। घड़कने बढ़ी हुई है। क्योंकि जीत हार उसी ग्रामीण वोटर को तय करनी है जिसकी पहचान किसान या मजदूर के तौर पर है।
बीजेपी नहीं तो कांग्रेस या फिर मोदी नहीं तो राहुल गांधी। गजब की सियासी बिसात देश के सामने आ खडी हुई है जिसमें पहली बार देश में जनता का दवाब ही आर्थिक नीतियों में बदलाव के संकेत दे रहा है और सत्ता पाने के लिये आर्थिक सुधार की लकीर छोड़ कर काग्रंेस को भी ग्रामीण भारत की जरुरतों को अपने मैनिफेस्टो में जगह देने की ही नहीं बल्कि उसे लागू करवाने के उपाय खोजने की जरुरत आ पड़ी है। क्योंकि इस सच को तो हर कोई अब समझने लगा है कि तात्कालिक राहत देने के लिये चाहे किसान की कर्जमाफी और समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी की बात की जा सकती ह। और सत्ता मिलने पर इसे लागू कराने की दिशा में बढा भी जा सकता है । लेकिन इसके असर की उम्र भी बरस भर बाद ही खत्म हो जायेगी। यानी सवाल सिर्फ ये नहीं है कि स्वामी नाथन रिपोर्ट के मद्देनजर किसानों के हक के सवाल समाधान देखे। या फिर जिस तर्ज पर कारपोरेट की कर्ज मुक्ति की जो रकम सरकारी बैंकों के जरिये माफ की जा रही है उसका तो एक अंश भर ही किसानों का कर्ज है तो उसे माफ क्यों नहीं किया जा सकता । दरअसल ये चुनावी गणित के सवाल है देश को पटरी पर लाने का रास्ता नहीं है। क्योंकि किसानों का कुल कर्ज बारह लाख करोड़ अगर कोई सरकार सत्ता संभालने के लिये या सत्ता में बरकरार रहने के लिये माफ कर भी देती है तो क्या वाकई देश पटरी पर लौट आयेगा और किसानों की हालत ठीक हो जायेगी । ये समझ बिना डिग्री भी मिल जाती है कि जिन्दगी सिर्फ एकमुश्त रुपयों से चल नहीं सकती।
वक्त के साथ अगर रुपये का मूल्य घटता जाता है। या फिर किसानी और मंहगी होती जाती है। या फिर बाजार में किसी भी उत्पाद की मांग के मुताबिक माल पहुंचता नहीं है। या फिर रोजगार से लेकर अपराध और भ्रष्ट्रचार से लेकर खनिज संसाधनो की लूट जारी रहती है। या फिर सत्ता में आने के लिये पूंजी का जुगाड उन्हीं माध्यमों से होता है जो उपर के तमाम हालातों को जिन्दा रखना चाहते ह। तो फिर किसी भी क्षेत्र में कोई भी राहत या कल्याण अवस्था को अपना कर सत्ता तो पायी जा सकती है लेकिन राहत अवस्था को ज्यादा दिन टिकाये नहीं रखा जा सकता। और शायद मौजूदा मोदी सत्ता इसके लिये बधाई के पात्र है कि उन्होंने सत्ता के लिये संघर्ष करते राजनीतिक दलों को ये सीख दे दी कि अब उन्हें सत्ता मिली और अगर उन्होंने जनता की जरूरतों के मुताबिक कार्य नहीं किया तो फिर पांच बरस इंतजार करने की स्थिति में शायद जनता भी नहीं होगी। क्योंकि कांग्रेस ने अपनी सत्ता के वक्त संस्थानों को ढहाया नहीं बल्कि आर्थिक सुधार के नजरियांे को उसी अनुरुप अपनाया जैसा विश्व बैंक या आईएमएफ की नीतिंया चाहती रही। लेकिन मोदी सत्ता ने संस्थानो को ढहा कर कारपोरेट के हाथों देश को कुछ इस तरह सौंपने की सोच पैदा की जिसमें उसकी अंगुलियो से बंधे धागों पर हर कोई नाचता हुआ दिखायी दें। यानी आर्थिक सुधार की उस पराकाष्टा को मोदी सत्ता ने छूने का प्रयास किया जिसमें चुनी हुई सत्ता के दिमाग में जो भी सुधार की सोच हो वह उसे राजनीतिक तौर पर लागू करवाने से ना हिचके।
शायद नोटबंदी फिर जीएसटी उस सोच के तहत लिया गया एक निर्णय भर है। लेकिन ये निर्णय कितना खतरनाक है इसके लिये मोदी सत्ता के ही आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमणयम की नई किताब ‘आफ काउसल: द चैलेंजेस आफ द मोदी-जेटली इक्नामी’ से ही पता चल जाता है जिसमें बतौर आर्थिक सलाहकार सुब्रहमणयम ये कहने से नहीं चुकते कि जब मोदी नोटबंदी का एलान करते है तो नार्थ ब्लाक के कमरे में बैठे हुये वह सोचते है कि इससे ज्यादा खतरनाक कोई निर्णय हो नहीं सकता। यानी देश को ही संकट में डालने की ऐसी सोच जिसके पीछे राजनीतिक लाभ की व्यापक सोच हो। यानी से संकेत अब काग्रेस को भी है कि 1991 में अपनाये गये आर्थिक सुधार की उम्र ना सिर्फ सामाजिक आर्थिक तौर पर बल्कि राजनीतिक तौर पर भी पूरे हो चले है । क्योंकि दिल्ली में किसानों का जमघट पूरे देश से सिर्फ इसलिये जमा नहीं हुआ है कि वह अपनी ताकत का एहसास सत्ता को करा सके । बल्कि चार मैसेज एक साथ उपजे है। पहला , किसान एकजुट है। दूसरा , किसानों के साथ मध्यम वर्ग भी जुड रहा है। तीसरा, किसानों की मांग रूपयों की राहत में नहीं बल्कि इन्फ्रस्ट्रक्चर को मजबूत बनाने पर जा टिकी है। चैथा , किसानों के हक में सभी विपक्षी राजनीतिक दल है तो संसद के भीतर साफ लकीर खिंच रही है किसानों पर मोदी सत्ता अलग थलग है।
कह सकते है कि 2019 से पहले किसानों के मुद्दो को केन्द्र में लाने का ये प्रयास भी है। लेकिन इस प्रयास का असर ये भी है कि अब जो भी सत्ता में आयेगा उसे कारपोरेट के हाथों को पकड़ना छोड़ना होगा। यानी अब इक्नामिक माॅडल इसकी इजाजत नहीं देता है कि कारपोरेट के मुनाफे से मिलने वाली रकम से राजनीतिक सत्ता किसान या गरीबों को राहत देने या कल्याण योजनाओं का एलान भर करें बल्कि ग्रामीण भारत की इकानमी को राष्ट्रीय नीति के तौर पर कैसे लागू करना है अब परीक्षा इसकी शुरु हो चुकी है। इस रास्ते मोदी फेल हो चुके है और राहुल की परीक्षा बाकि है। क्योंकि याद कीजिए तो 2014 में सत्ता में आते ही संसद के सेन्ट्रल हाल में जो भाषण मोदी ने दिया था वह पूरी तरह गरीब, किसान पर टिका था । लेकिन सत्ता चलाते वक्त उसमें से साथी कारपोरेट की लूट, ब्लैक मनी पर खामोशी और बहुसंख्यक जनता को मुश्किल में डालने वाले निर्णय निकले। तो दूसरी तरफ राहुल गांधी उस काग्रेंस को ढोने से बार बार इंकार कर रहे है जिनके पेट भरे हुये है , एसी कमरो में कैद है और जो मुनाफे की फिलास्फी के साथ इकनामिक माडल को परोसने की दुहाई अब भी दे रहे है। आसान शब्दों में कहे तो ओल्ड गार्ड के आसरे राहुल काग्रेंस को रखना नहीं चाहते है और काग्रेंस में ये बदलाव काग्रेंसी सोच से नहीं बल्कि मोदी दौर में देश के बिगडते हालातों के बीच जनता के सवालों से निकला है।
सबसे बड़ा सवाल आने वाले वक्त में यही है क्या राष्ट्रीय नीतिंया वोट बैक ही परखेगी या वोट बैंक की व्यापकता राष्ट्रीय नीतियों के दायरे में आ जायेगी। क्योंकि संकट चैतरफा है जिसके दायरे में किसान-मजदूर, दलित-ओबीसी , महिला-युवा सभी है और सवाल सिर्फ संवैधानिक संस्थाओं को बचाने भर का नहीं है बल्कि राजनीतिक व्यवस्था को भी संभालने का है जो कारपोरेट की पूंजी तले मुश्किल में पडे हर तबके को सिर्फ वोटर मानती है।