धन के दाता हैं धन्वंतरि

यदि व्यक्ति स्वस्थ न हो, उसका शरीर रोग ग्रस्त हो तो वह तमाम सुख-सुविधाओं को उपलब्ध रहते हुए भी, उपभोग नहीं कर सकेगा। धनतेरस के दिन धन्वंतरि की प्रकट होने की कथा भी हमें यही संकेत देती है कि धन की आराधना करते समय स्वास्थ्य को भूल नहीं जाना चाहिए। स्वास्थ्य से ही हर तरह की समृद्धि साधी जा सकती है, उसको स्थिर किया किया जा सकता है और सभी तरह के वैभवों को भोगा जा सकता है।

सर्वश्रेष्ठ धन के दाता हैं धन्वंतरि। एक पौराणिक कहानी के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान सागर से चैदह रत्न प्रकट हुए थे। ये चैदह रत्न हैं-धन की देवी लक्ष्मी, कौस्तुभ,पारिजात अथवा कल्पवृक्ष,वारुणी सुरा, चंद्रमा,अप्सरा रंभा, ऐरावत हाथी, अमृत, हलाहल अथवा कालकूट विष, उच्चैःश्रवा घोड़ा, कामधेनु या सुरभि गाय,पांचजन्य शंख, सारंग धनुष और धन्वंतरि। धनतेरस के दिन ही आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के जन्मदाता धन्वंतरि समुद्र से अमृत कलश लेकर प्रगट हुए थे, इसलिए धनतेरस को धन्वंतरि जयंती भी कहते हैं। धन्वंतरि का निवास काशी माना जाता है। वैद्य-हकीम और ब्राह्मण समाज इस दिन धन्वंतरि भगवान का पूजन कर धंवन्तरि जयंती मनाता है। धन्वंतरि ने अमृतमय औषधियों की खोज की। इनके वंश में दिवोदास हुए, जिन्होंने ‘शल्य चिकित्सा’ का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया। शंकर ने विषपान किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गई। आयुर्वेद के संबंध में सुश्रुत का मत है कि ब्रह्माजी ने पहली बार एक लाख श्लोक के, आयुर्वेद का प्रकाशन किया था, जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उनसे प्रजापति ने पढ़ा तदोपरांत उनसे अश्विनी कुमारों ने पढ़ा और उन से इंद्र ने पढ़ा। इंद्रदेव से धन्वंतरि ने पढ़ा और उन्हें सुन कर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की।

भावप्रकाश के अनुसार आत्रेय प्रमुख मुनियों ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर उसे अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों को दिया। इसके उपरान्त अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों के तंत्रों को संकलित तथा प्रतिसंस्कृत कर चरक द्वारा ‘चरक संहिता’ के निर्माण का भी आख्यान है। महाभारत तथा पुराणों में विष्णु के अंश के रूप में उनका उल्लेख प्राप्त होता है। उनका प्रादुर्भाव समुद्र मंथन के बाद निर्गत कलश से अंड के रुप मे हुआ।

समुद्र के निकलने के बाद उन्होंने विष्णु से कहा कि लोक में मेरा स्थान और भाग निश्चित कर दें। इस पर विष्णु ने कहा कि यज्ञ का विभाग तो देवताओं में पहले ही हो चुका है, अतःयह अब संभव नहीं है। देवों के बाद आने के कारण तुम ;देवद्ध ईश्वर नहीं हो। अतः तुम्हें अगले जन्म में सिद्धियाँ प्राप्त होंगी और तुम लोक में प्रसिद्धि प्राप्त करोगे। तुम्हें उसी शरीर से देवत्व प्राप्त होगा और द्विजातिगण तुम्हारी सभी तरह से पूजा करेंगे। तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन भी करोगे। द्वितीय द्वापर में तुम पुनः जन्म लोगे इसमें कोई संदेह नहीं है। इस वर के अनुसार पुत्रकाम काशीराज धन्व की तपस्या से प्रसन्न हो कर भगवान ने उसके पुत्र के रुप में जन्म लिया और ‘धन्वंतरि’ यह नाम धारण किया। वे सभी रोगों के निवराण में निष्णात थे। उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहण कर उसे अष्टांग में विभक्त कर अपने शिष्यों में बांट दिया। धन्वंतरि की परंपरा है।

विष्णुपुराण में यह थोड़ी भिन्न है। श्रीमद्भागवत में भी इसी वंश परंपरा का उल्लेख है। वैदिक काल में जो महत्त्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था, वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ। जहां अश्विनी के हाथ में मधु कलश था वहां धन्वंतरि को अमृत कलश मिला। क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं,अतः रोगों से रक्षा करने वाले धन्वंतरि को विष्णु का अंश माना गया। विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण में आया है।

धनतेरस के दिन समृद्धि की आकांक्षा की जाती है और भारतीय मानते रहे हैं कि सबसे उत्तम धन, निरोगी काया है। यदि व्यक्ति स्वस्थ न हो, उसका शरीर रोग ग्रस्त हो तो वह तमाम सुख-सुविधाओं को उपलब्ध रहते हुए भी, उपभोग नहीं कर सकेगा। \

धनतेरस के दिन धन्वंतरि के प्रकट होने की कथा भी हमें यही संकेत देती है कि धन की आराधना करते समय स्वास्थ्य को भूल नहीं जाना चाहिए। स्वास्थ्य से ही हर तरह की समृद्धि साधी जा सकती है, उसको स्थिर किया जा सकता है और सभी तरह के वैभवों को भोगा जा सकता है।

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