महाभारत की घटनाओं से जुड़ा, लाखामंडल

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देहरादून जनपद का जौनसार-बावर क्षेत्र महाभारत कालीन घटनाओं से जुड़ा रहा है। यहां पर स्थित दर्जनों पौराणिक लघु शिवालय, ऐतिहासिक और प्राचीन मूर्तियां सैलानियों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करती हैं। लाखामंडल मंदिर एवं पुरावशेष अपनी नैसर्गिक सुंदरता, पुरातात्विक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्व के अतिरिक्त उत्कृष्ठ वास्तुशिल्प के कारण अपना विशिष्ट स्थान रखता है।

लाखामंड़ल का संबंध महाभारत काल की उस घटना से बताया जाता है, जिसमें कौरवों ने पांच पांडवों और माता कुंती को मारने के लिए लाक्षागृह का निर्माण किया था। लाखामंडल में वह ऐतिहासिक गुफा आज भी मौजूद है, जिस गुफा से पांडव सकुशल जीवित बाहर निकले थे। इस लाक्षागृह से सुरक्षित बाहर निकलने के बाद पांडवों ने चक्रनगरी में एक माह तक निवास किया था, जिसे आज चकराता कहते है।

पांडव भगवान शिव को अपना आराध्य मानते थे। इस जनजाति क्षेत्र के लाखामंडल, हनोल, थैना और मैंद्रथ में खुदाई कर मिले पौराणिक शिवलिंग और मूर्तियां इस बात को बंया करते है, इस क्षेत्र में पांडवों का वास रहा है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा लाखामंडल और हनोल को ऐतीहासिक धरोहर घोषित कर इन प्राचीन मंदिरों के सरंक्षण की जिम्मेदारी ली हुई है। लाखामंडल समुद्रतल से लगभग 1095 मीटर की ऊंचाई पर यमुना नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित है। लाखामंडल मंदिर एवं पुरावशेष अपनी नैसर्गिक सुंदरता, पुरातात्विक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्व के अतिरिक्त उत्कृष्ठ वास्तुशिल्प के कारण आज भी मध्य हिमालय में अपना विशिष्ट स्थान रखता है।

लाखामंडल की देहरादून से दूरी 107 किमी है। सर्वप्रथम सन 1814-15 में जेम्स वैली फ्रासर द्वारा लाखामंडल के पुरावशेषों को प्रकाश में लाया गया। उन्होंने अपनी रचना दि हिमालयन माउंटेन में इस स्थल पर शिव मंदिर के अतिरिक्त पांच पांडवों के मंदिर ऋिषी व्यास एवं परशुराम का मंदिर, प्राचीन केदार मंदिर और कुछ मूर्तियां का उल्लेख किया है। पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर यह ज्ञात होता है कि लाखामंडल प्राचीन काल से आबादित रहा है। विगत समय में ग्राम लावड़ी से प्राप्त महापाषाण संस्कृति के अवशेष इस अवधारणा की पुष्टि करते हैं। इस संस्कृति के अवशेष तत्कालीन मृतक संस्कारों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। इस पद्धति में पत्थरों से निर्मित ताबूत में मृतक शरीर अथवा अवशेषों को रखा जाता था।

लाखामंडल से प्राप्त अवशेषों के प्रकाश में आने से यह तथ्य सामने आया कि महापाषाण संस्कृति के अवशेष संपूण मध्य हिमालय में बिखरे हैं। लाखामंडल से प्राप्त शिलापट्ट पर उत्कीर्ण छगलेश एवं रानी ईश्वरा की प्रशस्ति इस स्थल के इतिहास को समृद्ध करने में सहायक रहे हैं। मंदिर वास्तु के साथ-साथ मूर्ति शिल्प में भी लाखामंडल विशिष्ट स्थान रखता है। विशाल आदमकद पत्थर की लगभग 7वीं सदी में उत्कीर्ण जय-विजय की प्रतिमा इस क्षेत्र के मूर्तिशिल्प का उदाहरण है। इसके अतिरिक्त शिव-पार्वती, गंगा-यमुना और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां लाखामंडल की मूर्तिशिल्प की विशिष्टता को परिलक्षित करती हैं।

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