कहानी : ‘भीखारिनें’

डाॅ. लालजी दीक्षित
सेवानिवृत्त वैज्ञानिक, आईआईपी,देहरादून

रिस्पना त्रिपथ की भीड़ में जैसे ही मैं तिपहिया वाहन से नीचे उतर कर मैं आफिस की ओर जाने के लिए दूसरे वाहन की ओर बढ़ा, वैसे ही भीख मांगने वाले बच्चों का एक झुंड कटोरे में रखे सिक्कों को खनखनाते हुये दीन भाव से चेहरे लिए चिल्लाते हुए रास्ता रोक कर खडे़ हो जाते – बाबूजी! बाबू जी! दो रुपये दे दो ना।

क्यों?

भीख में।

नहीं नहीं। हटो यहाँ से। मुझे जाने दो। रास्ता रोककर खड़ी हो जाती हो। तुम सब भीख क्यों मांग रही हो? जाकर कोई काम क्याें नहीं करती। दो रूपए तो काम कर के भी कमाया जा सकता है। भीख मांगना अच्छी बात नहीं। चलो हटो यहाँ से मुझे जाने दो। भीख मांगते बच्चों के मुख मंडल से निकला स्वर एक बार विचलित कर दिया।

सावलें रंग की शोभा ने अकड़ कर कहा – कौन काम करे गा बाबू जी? मां यही करने को ही कहती है और थोड़ा रूक कर फिर वही रट लगाना प्रारम्भ कर दी
– दो रूपऐे देते जाइए न दादा जी। भगवान आप का भला करेगा।

नहीं-नहीं कहते जैसे आगे बढ़ने की कोशिश करते फिर वही रट- दें दो न बाबूजी दो रूपये। भगवान आप का भला करेगा। आप के बाल बच्चे मजे में रहें। दो रूपये में आप का कुछ न बिगड़ेगा, दे दीजिए ना।

भीख मांगने वाले बच्चों के मुंह से बच्चों के लिए दुआ देने की बात सुनकर आश्चर्य होता था कि क्या ये बच्चे दुआ देने योग्य उम्र में है? किंतु भीख मांगते बच्चाें का प्रतिदिन का यही रटा रटाया डाॅयलाग होता था। किसे नहीं पता कि बच्चे ईश्वर का रूप होते हैं पर इन बच्चों को देख कर विश्वास नहीं होता था।

दें दो न बाबूजी! दो रूपये दे दो ना कि रट लगते हुए बच्चे काफी दूर तक पीछा करते चले आते थे। ज्यादातर लोग अनसुना करते हुए आगे बढ़ जाते लेकिन कोई न कोई बच्चों के कटोरों मंे दो चार रूपये डाल कर ही आगे बढ़ते थे। मैं भी जब सिक्के होते थे तो दो रूपये देकर ही अपनी ऑफिस की ओर चला जाता था। उस वक्त विक्रम का किराया पांच रूपये था, दस रूपये चालक को देने के बाद बाकी पांच रूपयों के कुछ सिक्के लेने के लिए भिखारिओं के बच्चे वहां जमा रहते थे। बच्चे कम उम्र के छोटे ही होते थे पर भीख मांगने की विद्या में रातों-रात कैसे निपुण हो जाते थे कोई नहीं जानता था। जब कोई आदमी पैसे नहीं देता था और दूर हटो कहता तो बच्चे उसके पीछे दौड़ते हुए कुछ दूर तक जाते, और निराश होकर लौट आते और किसी दूसरे विक्रम की ओर उतरती सवारियों की ओर टकटकी लगाते। हाथ आगे की ओर बढ़ाते थे और दुआ देते हुए भीख मांगा करते थे। देश में भीख मांगना अपराध होते हुए भी क्षम्य था। सच पूछिए तो भीख मांगना अपराध नहीं, पेशा माना जाता है। बत्तीस वर्ष की सरकारी नौकरी के उपरांत मैं सेवा निवृत्ति हो गया और अपनी जन्मभूमि काशी आ गया।

काशी के दुर्गा कुण्ड मंदिर के सामने भी भिखमंगे रिक्शे पर सवार होकर बाल बच्चों सहित सुबह-सुबह आ जाते थे और दिन भर भीख मांगने के बाद शाम को घर लौटते थे। विदेशी पर्यटक उनकी फोटो खींचते और वीडिओ बनाकर ले जाते और भारत की गरीबी पर साहित्य लिखते थे और उपहास उड़ाते। आजादी के तीन दशक बाद भारत में भिखमांगने वाले भी पैसे वाले कहे जाने लगे। मुझे तो यहां तक पता चला कि काशी में कई-कई भीख मांगने वालों ने इतना धन जुटा रखा है वे अब छोटे -मोटे व्यापारियों को सूद पर रुपया उधार देने का अच्छा खासा धंधा करते हैं। इनके पास बैंक खाता और हाथ में एटीएम कार्ड है। काशी धनाढ़य भिखमंगाें का शहर तो पहले से ही था। यहां के पंडे और मंदिरों के पुजारी भी मांगने में किसी से कम नहीं हैं। यजमानों से पैसा ऐठनें और उनकी जेब से पैसे निकलवाने के नित नये तौर तरीके ढूढ़ लेते हैं। इसका जीता जागता उदहरण है महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी। जो इतने योग्य थे कि उन्होंनेे काशी हिंदू विश्वविद्यालय स्थापना भवन निर्माण के लिए भीख मांगने वालों से ही चन्दा इक्ट्ठा कर लिया था। काशी अद्भुत शहर है। यहां पर भीख मांगने की संस्तुति राजा भर्तिहरि भी कर गये है। करपात्री जी की वृत्ति लगभग भिखमंगे जैसे ही थी। भीख में जो कुछ भी मिलता था हाथ पर लेकर खाते थे, हाथ ही उनका पात्र था और गंगा जल अंजलि से पीते थे। इसलिए ही वो करपात्री कहलाए। काशी में साहित्यकारों ने भिखमंगो पर अच्छा खासा साहित्य भी लिखा गया जैसे- ‘निराला’ वह आता दो टूक कलेजे को करता पछताता पथ पर आता अथवा जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी ‘भिखारिन’ अथवा ‘भीख में’ आदि।

सेवानिवृत्ति के महज बारह साल पश्चात पेंशन के नवीनीकरण और जीवन प्रमाण पत्र बैक में देने के लिए एक बार फिर उसी रिस्पना त्रिपथ पर आ पहुंचा -जहां से मैं अक्सर अपने कार्यालय मोहक्मपुर जाया करता था। उन बच्चों की याद आयी जो मेरे पीछे अक्सर भीख मांगने के लिए दौड़ा करते थे। 14 नवम्बर का बाल दिवस चाचा नेहरू का जन्मदिन था। ठीक नौ बजे मेरा आफिस जाने का समय होता था। वक्त बदला उत्तराखण्ड की तस्वीर बदली हर तरफ ईंटों के जंगल जंगल नजर आ रहे थे। रेलवे लाइनों पर ओवर ब्रिज बन चुके थे। रिस्पनापुल की सूरत लाल, पीले, हरी बत्तियों से टिम-टिमा रही थी किंतु नहीं बदली तो रिस्पना के त्रिपथ पर भीख मांगने वालांे की संख्या।

सुबह के समय त्रिपथ पर भिक्षावृत्ति करने वालों का झुण्ड देख कर मैं आश्चर्य चकित रह गया। देश की जनता विकास के रथ पर सवार है और यहां इतने सारे भीख मांगने वाले, वो ही हाईटेक हाथ में पेटीएम लिये हुये। ये लोग हरिद्वार और ऋषिकेश में प्रतिदिन यही से बस में बैठ कर भीख मांगने जाया करता था।

वहीं दूसरी तरफ मजदूराें का जमावड़ा अपने-अपने काम की ताक में टक्टकी लगाए खडे़ थे। वाह रे ईश्वर! तुमने ही सबको अपने-अपने कर्म करने का आवंटन किया है। तभी शारीरिक रूप से पूर्ण विकसित पांच छः युवतियाें के झुण्ड ने हाथ में कटोरे लेकर सिक्के खनखनाते हुए हुए कटोरे को मेरे आगे बढ़ा दिया। कटोरा चारांे ओर नोटों से सजा था। बीच में किसी देवी की मूर्ति को स्थापित कर के धूप अगरबत्ती जला रखी थी। देखते ही मैं हैरत मे पड़ गया । सोचने लगा .. क्या ऐ वही बच्चे है जिन्हें बचपन में मैं इनकी झोली में कुछ सिक्के डाल दिया करता था? पूर्ण रूप से विकसित यौवन के उपकरणों को अपनी आधी ओढ़नी से ढक कर माथे पर ले रखा था। केस पर कपडे़ बांध रखे थे लेकिन भीख मांगने का काम बंद नही किया था। मानो यह उनका जन्मजात पेशा हो। समझ में नहीं आया कि भीख मांगना इनका कर्म है या धर्म अथवा कुछ और . . .।

तभी ओढ़नी ठीक करते हुए एक भिखारिन ने दूसरी से कहा – देख कोकला! इस अंकल को तुम पहचानती हो क्या?

न तो रे गोली! होगा कोई, पैसे तो दिये नहीं, दिये बगैर निकल गया। क्या पहचानना कौन है। होगा कोई बूढ़ा खूसट! पैसे देता तो बाबूजी कहकर सलाम करती, नहीं दिये तो ‘बद्दुआ’ देना हम भिखारियों को किसी ने सिखाया नहीं है जाने दे। दिए तो भला न दिये तो भला। चल आगे चल दूसरा विक्रम देखते है, यात्री उतर रहे है, जल्दी कर।

तीसरी भिखारिन जमुना ने कहा – मैं पहचान रही हूँ। बहुत पहले जब हम छोटे थे-लगभग पांच या छः साल के तो यही वाले अंकल दो रुपये दिया करते थे। किसी आफिस में काम करते थे। आज दस बारह साल बाद दिखे है। लगता है रिटायर होकर अपने घर चले गये थे। करीब दस साल बाद दिखे है। तभी दूसरी ने कहा हट दाताओं को क्यांे याद करना? देने वाले दे कर भूल जाया करते है तोे हम क्यों याद रखें?
चैथी भिखारन माया ने जमुना से कहा – देख जमुना! किसी बूढे़ बुजुर्ग के बारे में इतना क्यूं सोच रही हो? होगा कोई। यहां दिन में सैंकडों आते हैं किस-किस पर ध्यान दिया जाए और किस-किस को याद रखना। इधर से आए और उधर निकल गये।

भिखारी दिन भर भीख मांगते हैं पर उनका पेट नहीं भरता। भिक्षा में जो मिल जाता है वही रात के समय पकाकर खाते, यही उनका जीवन है। राजा भत्र्यहरि ने यही बताया है। भिक्षा में मिला भोज्य केवल एक बार ही खाते आए है। दाताओं को याद कर के क्या पेट भरने वाला है? हमारी किस्मत में भीख मांग कर खाना ही लिखा है। तो देने वाले का नाम याद कर के क्या मिलने वाला है। कोई जीवन गुजारने या निर्वाह करने की जिम्मेदारी तो नहीं ले सकता।

जमुना सेाचने लगी और माया को समझाने लगी- हम लोग इतने बडे़ हो गये कोई अन्य काम सीखा भी नहीं। अब तो आजीवन यही करना है। मां ने जो सिखाया वही तो करोगीं। राजा भर्तहरि का ऐसा ही आदेश हैं। संावले रंग की पांचवी भिखारन अपने केशाें काे संवारते हुए आपत्ति प्रकट करते हुए कहा- देख माया और जमुना! चल कर मैं मां से कहूंगी कि ये दोनांे आज एक बूढे़ आदमी के पीछे़ पड़ गयी थी। ऐसे लगता था कि मानांे वे इनके दादाजी थे। थोड़ा रूक कर चिढ़ाने के लिए कही – जा जा गले लग जा। तेरे दादा जी लगते है, पांव छू ले। यह कह कर उपहासमय हंसी हसने लगी।

छंठी भिखारन चिढ़ गयी। कुरूप और भयानक चेहरा लिए गोद में बच्चे को सहलती हुई कहने लगी – क्या बुढ्ढ़े से ब्याह रचाना है जो इतना सोच विचार कर रही हों तुम सब, चलो यहां से , देख एक और विक्रम आया। यात्री भर कर आए हैं। वहां कुछ मिलेगा, अभी तक बोहनी बट्टा नहीं हुआ है।

जमुना झिझकते हुए बोली – नहीं , रूको तो यार! ए अंकल बहुत पहले हम लोगों के कटोरे में दो रूपये दिया करते थे। अब बूढ़े हो गये है। आए होंगे किसी काम से। अभी जिन्दा है यही क्या कम है, अच्छी बात है। ज्यादातर सरकाररी अधिकारी बेईमानी का खा कर रिटायर होते ही स्वर्ग लोक सिधार जाते है। यह कोई ईमानदार सरकारी कर्मचारी रहंे हांेगे। भाग्यवान है जो अब तक जीवित है।

भिखारिनाें की बातें सुन कर मैं आगे बढ़ गया। मैं यह सोचकर कि भीख मांगना अपराध है उनकी ओर देखना और यहां ज्यादा देर तक ठहरना उचित नहीं समझा और वहां पहंुच गया जहां से विक्रम मोहकमपुर की ओर जाने के लिए खडे़ थे। भिखारिने मुझे देखती रहीं। उनकी आखाें में लालच और आशा की किरन धूमिल नहीं हुयी थी। याचना मानों आखाें से टपकना चाहती हो।

विक्रम स्टेशन पर शेड के नीचे थोड़ी देर बाद वाहन में बैठते ही मैनें जेब मे हाथ डाला तो पैसे नदारद। अब मैं सकते मंे आ गया। दो किलोमीटर का लम्बा गन्तव्य था। इस उम्र में पैदल नहीं जा सकता था। कैसे जाऊं बैंक में पेंशन के नवीनीकरण के लिए? दुविधा में था मन आगे पीछे कर रहा था। एक बार सोचा लौटकर पैदल घर चला जाऊं। कल दोबारा आकर काम कर लूंगा। फिर मन में आया कि किसी दुकानदार से पैसे उधार लेकर चलता हूं और काम आज ही पूरा कर लूंगा। पहले दुकानदार परिचित हुआ करते थे पर अब सारे दुकानदार बदल गये थे। साहस कर के एक दुकान जिस पर कभी सादगी से ओत-प्रोत एक युवती बैठती थी जो मुझसे परिचित हुआ करती थी, उसकी दुकान पर एक कुष्टरोगी जिसके चेहरे पर सफेद दाग चमक रहे थे, बैठा देख मैं दूर से ही वापस आ गया।

अब क्या करता? खडे़ खड़े इधर-उधर ताक रहा था। अचानक विचार में आया कि क्यों न इन भिखारिनाें से दस रूपया ले लूं और विक्रम में बैठ कर सीधे बैंक में जाकर पैसे निकाल लूूं। लौटते समय वापस दे दूंगा। उधार लेना कोई भीख मांगना थोड़े होता है।

हिम्मत करके भिखारिनों के पास पहुंचा और कहा -ऐ! तुम सब इधर आओ। भिखारिनों ने हंसकर उपहास करते हुए मेरा स्वागत किया। उनमंे से एक मेरे पास आकर कहने लगी-कहिए!
क्या बात है दादाजी ?

तुम मुझे दस रूपये उधार दे दो। शाम को आफिस से लौटते समय दस के बदले मैं बीस रूपये दूंगा।

सारी भिखारिनें अट्टहास लगा कर जोर से हंस पड़ीं। मानो मेरी दीनता का वे अनुमान लगा रही हों। उनकी हंसी में उपहास भले न हो पर मेरी दयनीयता का आकलन अवश्य प्रस्फुटित हो रहा था।

सभी भिखारिनों के मुखार बिंदू से एक स्वर से प्रस्फुटित शब्द आज तक आज भी मेरे कानाें में गुजते है। उन्होंने कहा था -जाइए बाबू जी! जहां जाना हो। दिया तो कुछ नहीं उल्टे हमसे से उधार लेने आ गये। लेन-देन का काम कहीं और होता होगा। हम भिखमंगो के पास क्या है दादाजी, जो आप को दे सकते हैं? हम भिखमंगे हैं। भीख न मांगे तो दिन न कटे और न ही पेट भरे और मां की डांट अलग से। हम लोग भीख मांगते है देते नहीं। देने का अधिकार तो ईश्वर ने जन्म के साथ ही छीन लिया है। भिखारिनें वयस्क थीं और मैं बूढ़ा बहत्तर साल का, ज्यादा देर तक बात करना सम्भव नहीं था। जब तक मैं अपनी मजबूरी बताता भिखारिनें दूसरे विक्रम से आयी सवारियों के चक्क्र में पड़़ गयी। सभी भिखारिनें आपने अपने कटोरे दूसरे विक्रम से आए यात्रियों के सामने एक साथ फैला कर कहा-पांच रूपए देते जाइए बाबूजी . .।

मैं अवाक खड़े-खड़े सोचता रहा था कि अब क्या करूं। इसी बीच एक प्रौढ़ भिखारिन आपने बच्चे को गोद में सहालती हुई सामने आयी और कहने लगी – लीजिए दादा जी मैं दस रूपये दिए देती हूं, उधार के है। हम भिखमंगे भीख नहीं दिया करते। आप के द्वारा पैसों के लिए किये गये प्रयास से मैं प्रसन्न हूं , कभी आते जाते दे देना। भीख मांगने से पूर्ति नहीं होती। पर क्या किया जाय। प्रयास करने से सब कुछ मिलता है दादाजी ! इस संसार में किंतु कभी-कभी मांगने पर भीख भी नहीं मिलती।

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