अंग्रेजों के जमाने के चौकीदार
पीके खुराना
राजनीतिक रणनीतिकार
लगभग 30-35 साल पुरानी बात है। हम छुट्टियां मनाने परिवार सहित शिमला गए। हम वहां जिस गेस्ट हाउस में ठहरे थे, रात को उस गेस्ट हाउस का चौकीदार चक्कर लगाते हुए बीच-बीच में ‘हुकम सरकार फटाफट फो’ की आवाज देता रहता था। मैं उसकी इस हुंकार का खुलासा करने की असफल कोशिश करता रहा। सवेरे मैंने संबंधित एसडीई से इसके बारे में पूछा, तो उसने कहा कि यह व्यक्ति अंग्रेजों के जमाने से चौकीदारी कर रहा है। उस वक्त यह परिपाटी थी कि यदि कोई आता दिखे, तो चौकीदार आवाज देकर पूछा करता था ‘हू कम्स देअर, फ्रेंड और फो’ यानी, कौन आ रहा है -दोस्त या दुश्मन? लेकिन पढ़ा-लिखा न होने की वजह से उसने इसे अपने ढंग से कहना शुरू कर दिया है। अंबाला छावनी स्थित ‘कहानी लेखन महाविद्यालय’ के संस्थापक स्वर्गीय महाराज कृकृष्ण जैन के एक लेख में भी ऐसा ही एक उदाहरण था। एक नवोदित लेखक ने उन्हें अपना लेख पत्रिका ‘शुभ तारिका’ में छापने के लिए भेजा, जिसका शीर्षक था ‘कारखाने में तोते की आवाज’। दरअसल वह लेखक एक मुहावरे ‘नक्कारखाने में तूती की आवाज’ पर लेख लिखना चाह रहा था, लेकिन उसने मुहावरा समझे बिना, उसकी गहराई में जाए बिना, अपना लेख लिख दिया था।
आज हमारे देश में भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। हम कुछ ऐसे लोगों के बीच जी रहे हैं, जो गर्वपूर्वक खुद को एक सत्तासीन व्यक्ति का ‘भक्त’ बताते हैं और अपने से असहमत हर व्यक्ति को पप्पू का चमचा, देशद्रोही, हिंदू विरोधी तथा न जाने किस-किस खिताब से नवाज रहे हैं। ये लोग तथ्यों को समझने या उनकी गहराई तक जाने की कोशिश भी नहीं करना चाहते। वर्तमान सरकार की बहुत सी गड़बड़ियां सामने हैं, लेकिन ये भक्त उन गड़बड़ियों का न तो जवाब जानते हैं, न ही उन पर बात करना चाहते हैं। जब इस बारे में बात की जाती है, तो उनका जवाब होता है कि कांग्रेस ने 70 साल में क्या किया? अगली लोकसभा के लिए मतदान जारी है और सत्तासीन दल की ओर से आने वाले बयानों में सभी प्रासंगिक मुद्दे गायब हैं।
जवाब गोलमोल है या है ही नहीं। समस्या का जिक्र तक नहीं, फिर भी समर्थकों और भक्तों का मानना है कि जो हुआ, वह इस सरकार के कारण हुआ तथा जो नहीं हुआ, वह कांग्रेस के कारण नहीं हुआ। बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था की बर्बादी, छोटे व्यापारियों की मुश्किलों और किसानों की आत्महत्या के बारे में बात करें, तो मजाक उड़ाते हुए कहा जाता है कि 2014 से पहले किसान बीएमडब्ल्यू में घूमा करते थे, बेरोजगारी 2014 के बाद की बीमारी है, छोटे व्यापारियों को 2014 से पहले ई-कॉमर्स वेबसाइटों से कोई खतरा नहीं था तथा अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही थी, सिर्फ अब खराब होनी शुरू हुई है।
ये सभी लोग ‘हुकम सरकार फटाफट फो’ और ‘कारखाने में तोते की आवाज’ की हुंकार लगाने वाले ‘अंग्रेजों के जमाने के चौकीदार’ सरीखे हैं, जो यह समझने को तैयार नहीं हैं कि अगर कांग्रेस ने काम नहीं किया था, तो मतदाताओं ने उसे इतनी सजा दी कि 543 सीटों की लोकसभा में वह सिर्फ 44 सीटों तक सिमट कर रह गई तथा कुल सीटों का 10 प्रतिशत भी न ले पाने के कारण विपक्ष के नेता के पद से भी वंचित रह गई। अब अगर भाजपा भी काम नहीं करेगी, तो क्या मतदाता उसे बर्दाश्त करेंगे? चार चरणों का मतदान समाप्त हो चुका है और प्रमुख मीडिया घरानों व सर्वेक्षण एजेंसियों के 23 सर्वेक्षणों में से 11 सर्वेक्षणों ने खंडित जनादेश की भविष्यवाणी की है, यानी इन 11 सर्वेक्षणों के अनुसार किसी भी एक दल को पूर्ण बहुमत मिलने के आसार नहीं हैं। अंतिम तीन चरणों में मतदाताओं का रुख क्या रहेगा और ये सर्वेक्षण सच्चाई के कितने करीब हैं, इसका पता तो 23 मई को चल ही जाएगा, परंतु भक्तों की वाचालता एवं उग्रता के बावजूद हवा का रुख भाजपा के बहुत पक्ष में नहीं दिखता।
अगली सरकार कौन बनाएगा, यह भविष्य के गर्भ में है, पर यह स्पष्ट है कि यदि निर्बाध प्रचार, अकूत धन और लगभग सभी सरकारी संसाधनों के दुरुपयोग के बावजूद भाजपा सत्ता में न आई या बिना पूर्ण जनादेश के सत्ता में आई, तो उसका एक ही कारण होगा कि मोदी सरकार ने काम के बजाय प्रचार पर ध्यान दिया, अपने हर विरोधी का मजाक उड़ाया व खुद से असहमत जनता को भी विपक्ष के समक्ष खड़ा करके उसे भी देशद्रोही कहना शुरू कर दिया। यह सिर्फ तीन हफ्ते पुरानी बात है कि पूरे विपक्ष को भ्रष्टाचारी और देशद्रोही बताने वाली इस सरकार ने खुद सर्वोच्च न्यायालय में शपथपूर्वक कहा है कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे, खास तौर पर विदेशी चंदे के बारे में लोगों को जानने की आवश्यकता नहीं है तथा सरकारी वकील ने माननीय जजों को समझाने की कोशिश की कि उन्हें ‘समय की सच्चाई को समझना चाहिए एवं उसके अनुसार विचार करना चाहिए’। वकील साहिब का यह भी कहना था कि ‘पारदर्शिता कोई मंत्र नहीं है’ यानी, बदलते समय की दरकार है कि सरकार को भ्रष्ट आचरण की छूट मिलनी चाहिए, ताकि वह पैसे लेकर विदेशी कंपनियों और संस्थाओं को मनचाहे लाभ पहुंचाती रहे तथा बदले में उनसे चंदा उगाहती रह सके। ‘देशभक्ति’ का इतना बढ़िया आचरण भगवा रंग पहनने वाली भाजपा के अलावा और कहां मिल सकता है? चौकीदारी तो आखिर ऐसे ही होगी न।
क्या हम यह नहीं जानते कि वही बात छिपाई जाती है, जो अनुचित, अनैतिक और गैरकानूनी हो? इससे भी बड़ी बात यह है कि वर्तमान सरकार ने 2016 और 2017 का वित्त विधेयक पेश करते हुए चुपचाप वित्तीय कानून में संशोधन कर दिया तथा राजनीतिक दलों को मिलने वाले विदेशी चंदे को वैध बनाने के लिए कानून में जो संशोधन किया। पार्टी पर लगे आरोपों की बात तो छोड़िए, व्यक्तिगत आरोपों पर भी सभी भक्तगण चुप हैं। भाजपा के किसी नेता ने आज तक भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की धर्मपत्नी और उनके पुत्र पर लगे आरोपों पर कोई सफाई नहीं दी। इसलिए यह सोचना आवश्यक है कि ‘हुकम सरकार फटाफट फो’ और ‘कारखाने में तोते की आवाज’ का नारा लगाने वाले ‘अंग्रेजों के जमाने के इन चौकीदारों’ की असलियत को समझा जाए।