‘बग्वाल’ का एक रूप ‘इगास’
गढ़वाल में छोटी दीपावली यानी बग्वाल के ठीक ग्यारह दिन बाद इगास मनाए जाने की एक विशेष परंपरा है।
बग्वाल के दिन सुबह से ही गोवंश की पूजा की जाती है। लोग अपने पशुओं गाय, बैलों के सीगों पर तेल लगाकर माथे पर टीका लगाते और उनके पैरों को धोते कर उनको अपने हाथों से निवाला (पींडु) खिलाते है।
मवेशियों के लिए भात, झंगोरा, बाड़ी, मंडुवे के आटे का हलुवा और जौ का पींडू (आहार) तैयार किया जाता है। भात, झंगोरा, बाड़ी और जौ के बड़े लड्डूओं को तैयार कर उन्हें परात में फूलों से सजाया जाता है। पहले मवेशियों के पांव धोए जाते हैं और फिर दीप-धूप जलाकर उनकी पूजा की जाती है। माथे पर हल्दी का टीका और सींगों पर सरसों का तेल लगाकर उन्हें परात में सजा अन्न (पींडु) दिया जाता है। उसके बाद गाय- बैलों को चरने के लिए जंगल में भेजा दिया जाता।
वहीं इगास को लकेर लोक कंवदती है ऐसी है कि कहां जाता है कि गांव के एक घर में गाय, बैलों के साथ एक बछड़ा था जिसका नाम झल्या था। झल्या बड़ा ही नटखट और चालक था। बग्वाल के दिन उस परिवार ने अपने सभी पशुओं को पैर धोये, सींगों पर तेल, माथे पर टीका, निवाला आदि खिलाकर चुगने के लिए जंगल भेज दिया। इस अफरातफरी में झल्या छन (गौशाला में) में ही रह गया। जब सारे पशु जंगल में चुगने के लिए पहुंच गये, तो पता चला कि झल्या तो घर में ही छुट गया। आनन-फानन में झल्या को जंगल में चुगने के लिए भेजा गया इस अफरा-तफरी में झल्या के सीगों पर न तो तेल लगाया गया और न ही उसको खाने को पींडु़ (निवाला) दिया गया। यही बात झल्या के मन में बैठ गयी। इसी बात को लेकर नाराज झल्या अन्य पशुओं से दूर जंगल में अन्दर चला गया और जंगल के अंदर इतना दूर चला गया कि उसको भी नहीं पता नहीं चला वह कितना दूर आ गया। शाम को जब ग्वैर (गाय चुगाने वाले) जंगल से वापस आने लगे तो उन्होंने देखा कि झल्या तो है ही नहीं। देर तक खोजने के बाद भी झल्या का कहीं पता नहीं चला। तो ग्वैर बाकी पशुओं को लेकर घर आ गये।
जब यह बात गांव में पता चली तो गांव वाले टाॅर्च, लालटेन, गैस आदि लेकर झल्या को जंगल खोजने लगे, लेकिन झल्या नहीं मिला। काफी दिनों को लोग झल्या को खोजते रहेे लेकिन झल्या नहीं मिला। तब लोगों ने सोच कि झल्या को बाघ खा गया, फिर मन में एक सवाल आया कि यदि झल्या कोे बाघ ने मार होता तो कहीं न कहीं तो उसकी हड्डियाँ अवश्य मिलती। गांव वाले आश्चर्य में थे कि आखिर झल्या गया तो कहां, झल्या की खोज जारी रही।
झल्या को खोजते-खोजते एक दिन गांव वालों ने देखा कि पेड़ों के झुरमुट के बीच एक छोटी सी नदी बह रही है, जिसके पास एक शिवलिंग है और झल्या शिवलिंग के सामने खड़ा है। गांववालों ने उस जगह को साफ किया, शिवलिंग पर जल चढ़ा कर पूजा-अर्चना की और झल्या को घर लेकर आ गये।
झल्या के घर पहुंचने के बाद गांव के बुजुर्ग ने कहा कि झल्या खोया नहीं था बल्कि यह नाराज था क्योंकि बग्वाल के दिन हमने इसके न तो पैर धोयंे और न ही इसके सीगों पर तेल व माथे पर टीका लगाया और न ही इसको (पींडु) निवाला खाने को दिया। उन्होंने कहा कि इसलिए हम आज इसकी पूजा करेंगे, झल्या के सीगों पर तेल व माथे पर टीका और इसको (पींडु) निवाला खिलायेंगे। झल्या अकेला ही ऐसा बछ़डा था जिसकी दीवाली के ग्यारह दिन बाद अकेले ही पूजा की गई और पींडु खाने को दिया गया। इसलिए इस दिन को इग्वास कहा जाता है। इ माने ‘अकेला’ और गास माने ग्रास।
दूसरी तरफ पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्रीराम के वनवास से अयोध्या लौटने पर लोगों ने कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीये जलाकर उनका स्वागत किया था। लेकिन, गढ़वाल क्षेत्र में राम के लौटने की सूचना दीपावली के ग्यारह दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मिली। इसीलिए ग्रामीणों ने अपनी खुशी जाहिर करते हुए एकादशी को दीपावली का उत्सव मनाया।
मान्यता यह भी है कि गढ़वाल राज्य के सेनापति वीर भड़ माधो सिंह भंडारी जब दीपावली पर्व पर लड़ाई से वापस नहीं लौटे तो जनता इससे काफी दुखी हुई और उसने उत्सव नहीं मनाया। इसके ठीक ग्यारह दिन बाद एकादशी को वह लड़ाई से लौटे। तब उनके लौटने की खुशी में दीपावली मनाई गई। जिसे इगास पर्व नाम दिया गया।