भगवान कार्तिक स्वामी
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कार्तिक स्वामी, रुद्रप्रयाग जिले के पवित्र पर्यटक स्थलों में से एक है। रुद्रप्रयाग शहर से 38 किमी की दूरी पर स्थित इस जगह पर भगवान शिव के पुत्र, भगवान कार्तिकेय, को समर्पित एक मंदिर है। समुद्र की सतह से 3048 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह स्थान शक्तिशाली हिमालय की श्रेणियों से घिरा हुआ है।
पुराण कथा के अनुसार, एक बार शिव पार्वती के पुत्र स्वामी कार्तिकेय और गणेश दोनों भाई विवाह के लिए आपस में कलह करने लगे। कार्तिकेय का कहना था कि वे बड़े हैं, इसलिए उनका विवाह पहले होना चाहिए, किन्तु श्री गणेश अपना विवाह पहले करना चाहते थे। इस झगड़े पर फैसला देने के लिए दोनों अपने माता-पिता भवानी और शंकर के पास पहुँचे। उनके माता-पिता ने कहा कि तुम दोनों में जो कोई इस पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले यहाँ आ जाएगा, उसी का विवाह पहले होगा। शर्त सुनते ही कार्तिकेय जी पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए दौड़ पड़े। इधर स्थूलकाय श्री गणेश जी और उनका वाहन भी चूहा, भला इतनी शीघ्रता से वे परिक्रमा कैसे कर सकते थे। गणेश जी के सामने भारी समस्या उपस्थित थी। श्रीगणेश जी शरीर से जरूर स्थूल हैं, किन्तु वे बुद्धि के सागर हैं। उन्होंने कुछ सोच-विचार किया और अपनी माता पार्वती तथा पिता देवाधिदेव महेश्वर से एक आसन पर बैठने का आग्रह किया। उन दोनों के आसन पर बैठ जाने के बाद श्रीगणेश ने उनकी सात परिक्रमा की, फिर विधिवत् पूजन किया-
इस प्रकार श्रीगणेश माता-पिता की परिक्रमा करके पृथ्वी की परिक्रमा से प्राप्त होने वाले फल की प्राप्ति के अधिकारी बन गये। उनकी चतुर बुद्धि को देख कर शिव और पार्वती दोनों बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रीगणेश का विवाह भी करा दिया। जिस समय स्वामी कार्तिकेय सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके वापस आये, उस समय श्रीगणेश जी का विवाह विश्वरूप प्रजापति की पुत्रियों सिद्धि और बुद्धि के साथ हो चुका था। इतना ही नहीं श्री गणेशजी को उनकी ‘सिद्धि’ नामक पत्नी से ‘क्षेम’ तथा बुद्धि नामक पत्नी से ‘लाभ’, ये दो पुत्ररत्न भी मिल गये थे। भ्रमणशील और जगत का कल्याण करने वाले देवर्षि नारद ने स्वामी कार्तिकेय से यह सारा वृतान्त सुनाया। श्रीगणेश का विवाह और उन्हें पुत्र लाभ का समाचार सुनकर स्वामी कार्तिकेय जल उठे। इस प्रकरण से नाराज कार्तिक ने शिष्टाचार का पालन करते हुए अपने माता-पिता के चरण छुए और वहाँ से चल दिये। माता-पिता से अलग होकर कार्तिक स्वामी क्रौंच पर्वत पर रहने लगे। शिव और पार्वती ने अपने पुत्र कार्तिकेय को समझा-बुझाकर बुलाने हेतु देवर्षि नारद को क्रौंच पर्वत पर भेजा। देवर्षि नारद ने बहुत प्रकार से स्वामी को मनाने का प्रयास किया, किन्तु वे वापस नहीं आये। उसके बाद कोमल हृदय माता पार्वती पुत्र स्नेह में व्याकुल हो उठीं। वे भगवान शिव जी को लेकर क्रौंच पर्वत पर पहुँच गईं।
माता-पिता से रूष्ट हुए भगवान कार्तिक स्वामी ने जब-शिव पार्वती को आते देखा तो वे क्रौंच पर्वत से चार कोस दूर हिमालय की ओर अग्रसर हुए। कहा गया है कि जिस प्रकार नदियों में गंगा, व्रतों में एकादशी, हाथियों में ऐरावत, नागों में वासुकी, वारों में बृहस्पति, देवताओं में इन्द्र, देव सेनापतियों में कार्तिकेय, ऋतुओं में वसंत, अप्सराओं में रंभा, सतियों में अनुसूया को श्रेष्ठ माना गया है उसी प्रकार क्रौंच पर्वत पर कार्तिक माह की पूजाओं को श्रेष्ठ माना गया है। कई युगों से चली आ रही परंपरा के अनुसार स्थानीय जनता द्वारा क्रौंच पर्वत पर कार्तिक माह की वैकुण्ड चतुर्दशी का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है।
श्रद्धालु रात्रि भर अखण्ड जागरण कर चारों पहर चार आरती उतारकर तैतीस करोड देवी-देवताओं का आहवान करते हैं।
पुराणों में वर्णित है कि जब भगवान कार्तिकेय माता-पिता व तैतीस करोड देवी-देवताओं से रूष्ट होकर क्रौंच पर्वत पर आए थे तो तब से लेकर वर्तमान समय तक प्रतिवर्ष कार्तिक माह में तैतीस करोड देवी-देवता क्रौंच पर्वत पर आकर भगवान कार्तिक स्वामी की पूजा-अर्चना करते हैं।
घंटी चढ़ाने की है मान्यता
ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर में घंटी बांधने से इच्छा पूर्ण होती है। यही कारण है कि मंदिर के दूर से ही आपको यहां लगी अलग-अलग आकार की घंटियां दिखाई देने लगती हैं। मंदिर के गर्भगृह तक पहुंचने के लिए श्रद्धालुओं को मुख्य सड़क से लगभग 80 सीढ़ियों का सफर तय करना पड़ता है।