माँ दीबा

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मां रशुलन दीबा मंदिर की अद्भुत महिमा है। पौड़ी के पट्टी किमगडी गढ़ पोखरा ब्लॉक के झलपड़ी गावं के ऊपर घने जंगल से होते हुए रशुलन दीबा माता मंदिर पड़ता है। दीबा मंदिर की मान्यता के अनुसार दीबा माँ के दर्शन करने के लिए रात को ही चढ़कर सूर्य उदय से पहले मंदिर पहुंचना होता है। वह से सूर्य उदय के दर्शन बहुत शुभ माना जाता है।

इस जगह पर सुबह के 4 बजे सूर्योदय के दर्शन होते हैं। हिमालय और कैलाश पर्वत के बीच से जब सूरज निकलता है तो वह तीन रंगों में अपना स्वरूप बदलता है. भगवान सूर्य का यह रूप अनोखा होता है। जिसमे पहले लाल रंग, फिर केसरिया और अंत में चमकीले सुनहरे रंग आता है। भगवान सूर्य के इस विलक्षण रूप को देखने के लिए लोग यहां रात को ही बसेरा लगा देते हैं।

माता के मंदिर की लोग पूजा अर्चना करते हैं और नारियल और गुड़ यहां का प्रसाद होता है। माता के मंदिर में रशूली नाम के वृक्ष के पते में प्रसाद लेना शुभ माना जाता है लेकिन इस पेड़ को लेकर एक मान्यता है कि इस पेड़ पर कभी हथियार नहीं चलाया जाता है इसलिए लोग इस पेड़ की पत्तियों को हाथ से तोड़कर माता का प्रसाद ग्रहण करते हैं।

मान्यता यह भी है कि जब बहुत साल पहले गढ़वाल पर गोरखाओं का आक्रमण हुआ था तो मां ने अपने भक्तों को आवाज लगा कर सचेत किया था। कहा ये भी जाता है कि गोरखा इस मंदिर से वापिस लौट गए थे। उस समय में माता ने गोरखाओं को वापिस जाने के लिए कहा था। धारणाओं के मुताबिक गुत्तू घनसाली के भूटिया और मर्छ्या जनजाति के लोग यहां मां दीबा के दर्शन के लिए आते हैं जिनमे भूटिया जनजाति के लोग बकरियां चराने जब यहां आते हैं तो माता का आशीर्वाद लेना नहीं भूलते हैं क्योंकि जंगलों में रहकर वो मां के नाम का सुमिरन करते हैं जिसकी वजह से रात रात जंगलों में वो सुरक्षित रहते हैं।

यहां एक ऐसा पत्थर था कि उसे जिस दिशा की तरफ घुमा दिया जाता था उसी दिशा में बारिश होने लगती थी और इस स्थान का यहां की भाषा में नाम धवड़या (आवाज लगाना) है। कहा जाता है कि यहां पर दीबा मां भक्तों को सफेद बालों वाली एक बूढ़ी औरत के रूप में दर्शन दे चुकी हैं यहां पर ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर के आस-पास के पेड़ मात्र भंडारी जाति के लोग ही काट सकते है। यदि कोई दूसरी जाति का शख्स पेड़ों को काटता है तो उनमें से खून निकलता हैं।

अगर आप यहां आना चाहते हैं तो यहां पर मई और जून के महीने में जाना उचित माना जाता है। इन महीनों में भी यहां पर बड़ी कड़ाके की ठंड पड़ती है इसलिए अपने साथ कंबल और गर्म कपड़ों की व्यवस्था के साथ जाना पड़ता है। आापको सबसे पहले पौड़ी जिले के कोटद्वार शहर पहुंचना होगा। कोटद्वार से सतपुली से आपको चौबट्टाखाल गवाणी आना पड़ता है जहाँ से झालपड़ी गावं नजदीक पड़ता है झालपड़ी गावं से रास्ता यह करीब 15 किलोमीटर दूरी पर है झालपड़ी गावं से रास्ता जंगल के रास्ते होकर दुर्गम पहाड़ी से होकर माता के मंदिर पहुंचता जा सकता है। गांव से काफी दूर इस मंदिर में गावं खत्म होते ही आदमी को अपनी सुविधा पर जाना होता है। लोग यहां उपरी जगह पर खाने और रहने के इंतजाम के साथ जाते हैं।
दीवा डांडा ऊंची चोटी पर यह वह जगह हैं जहां पहुंचकर भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण हो जाती है। यहाँ की खाशियत ये है कि अगर कोई यात्री अछूता (परिवार में मृत्यु या नए बच्चे के जन्म) है। तो वह कितना भी प्रयास क्यों न कर ले यहाँ नहीं पहुँच सकता है। और कोई कितना भी बूढ़ा हो या बच्चा हो चढ़ाई में कोई भी समस्या नहीं होती है।

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